ग्वाल का परिचय
जन्म :मथुरा, उत्तर प्रदेश
निधन : 10/09/1867 | रामपुर, उत्तर प्रदेश
‘शिवसिंह सरोज’ में 1659 ई. में इस कवि का उपस्थित होना माना गया है और ‘कालिदास हज़ारा’ मे उद्धृत प्राचीन ग्वाल तथा सन् 1823 में उपस्थित मथुरा निवासी बंदीजन ग्वाल के नाम से दो कवियों का उल्लेख किया है, जिनमें दूसरे व्यक्ति ही विशेष प्रसिद्ध हैं। ये सेवाराम बंदीजन के पुत्र थे और समकालीन कवि नवनीत चतुर्वेदी तथा रामपुर दरबार के अमीर अहमद मीनाई की पुस्तक ‘इंतख़ाब-ए-यादगार’ के उल्लेख के आधार पर ये वास्तविक निवासी वृंदावन के सिद्ध होते हैं तथा वहीं कालिया घाट पर इनके मकानों के अवशेष तथा इनके वंशज अब भी हैं। मथुरा से भी उनका संबंध रहा है और वहाँ भी इन्होंने मकान बनवाया था। इनके ‘रसिकानंद’ नामक ग्रंथ से इनके पिता का नाम मुरलीधर राव भी मिलता है। इनके गुरु का नाम दयालजी बतलाया जाता है। इनका जन्म मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया सं० 1848 (सन् 1793) में हुआ। इनका रचनाकाल सन् 1822 से 1861 ई. तक माना जाता है। ये शतरंज के खिलाड़ी थे और फक्कड़ स्वभाव के होने के कारण इधर-उधर बहुत घूमे। ये नाभानरेश महाराज जसवंतसिंह, महाराज रणजीतसिंह, सुकेत मंडी तथा रामपुर रियासत के आश्रय में विशेष रूप से रहे । रामपुर में ये दो बार रहे और वहीं 16 अगस्त सन् 1867 को इनकी मृत्यु हुई। इनके दो पुत्र खूबचंद (या रूपचंद)तथा खेमचंद थे।
ग्वाल के ग्रंथों की संख्या पचास के लगभग बतायी जाती है और प्रत्येक इतिहासकार अथवा ग्वाल के आलोचकों ने कुछ नई पुस्तकों के नाम भी इनके साथ जोड़ दिये हैं, किंतु ‘रसरंग’, ‘अलंकारभ्रमभंजन’ तथा ‘कवि-दर्पण’ अधिक महत्त्व की हैं। इनमें से अधिकतर रचनाएँ तो प्राप्त भी नहीं हैं। इनके अब तक बताये जाने वाले ग्रंथों में ‘यमुना लहरी’, ‘रसिकानंद’, ‘हमीरहठ’, ‘राधामाधवमिलन’, ‘राधाष्टक’, ‘श्रीकृष्णजू को नखशिख’, ‘नेह-निबाहन’, ‘बंशीलीला’, ’गोपी-पच्चीसी’, ‘कुब्जाष्टक’, ‘कवि-दर्पण’, ‘साहित्यानंद’, ‘रसरंग’, ‘अलंकारभ्रमभंजन’, ‘प्रस्तार प्रकाश’, ‘भक्तिभावन या भक्तभावन’, ‘साहित्यभूषण’, ’साहित्यदर्पण’, ‘दोहा शृंगार’, ‘शृंगार कवित्त’, ‘दूषण दर्पण’, कवित्त बसंत’, ‘बंशी बीसा’, ‘ग्वाल पहेली’, ‘रामाष्टक’, ‘गणेशाष्टक’, ‘दृगशतक’, ‘कवित्त ग्रंथमाला’, ‘कवि-हृदय विनोद’, ‘इश्क लहर दरियाव’, ‘विजय विनोद’ और ‘षट्ऋतु वर्णन’ की चर्चा की जाती रही है।
गजेश्वर चतुर्वेदी ‘कवि दर्पण’ को ही ‘दूषण दर्पण’, ‘साहित्यदर्पण’ तथा ‘साहित्यभूषण’ के नाम से प्रचलित मानते हैं तथा ‘कवि हृदय विनोद’ को ‘भक्तिभावन’ या ‘भक्तिपावन’ का प्रकाशित लघु-संस्करण बताते हैं। इसी प्रकार हो सकता है ‘बंशीलीला’ भी एक ही पुस्तक के दो नाम हों। अभी तो अनुमान से ही आलोचकों ने इन सब ग्रंथों के विषय भी निर्धारित कर लिए हैं। इन ग्रंथों से ग्वाल का काव्यांगों का विवेचक होना तो सिद्ध होता ही है, उनकी भक्ति तथा शृंगारिक कविता का भी संकेत मिलता है। काव्यशास्त्र में रस, अलंकार तथा पिंगल ही उनके विषय रहे। ‘रसिकानंद’ में नायक-नायिका भेद, हाव-भाव तथा रस-निरूपण है और उदाहरणों का ही विशेष वर्णन है। ‘रसरंग’ में दोहों में रस-रसांगों के लक्षण संक्षिप्त तथा स्पष्ट रूप में दिये गये हैं। ‘कृष्णजु का नखशिख’ बलभद्र के ‘नखशिख’ के अनुकरण पर है और अलंकाराधिक्य में स्वाभाविकता खो बैठा है। यह अलंकार का ग्रंथ है। ‘अलंकारभ्रमभंजन’ अलग से इसी विषय के लिए लिखा गया है। ‘प्रस्तार प्रकाश’ पिंगल-निरूपक ग्रंथ है और ‘कवि-दर्पण’ रीतिग्रंथ। ‘रसिकानंद’ की रचना नाभानरेश महाराज जसवंतसिंह के यहाँ हुई थी और ‘कृष्णाष्टक’ की रचना टोंक के नवाब की इच्छा से हुई थी। मीर हसन की मसनवी ‘सहरूल-बयान’ का ‘इश्क लहर दरियाव’ के नाम से अनुवाद है और ‘विजय विनोद’ में महाराज रणजीतसिंह के दरबार की घटनाएँ हैं। इसमें राजा ध्यानसिंह का यश वर्णित है और उन्हे ‘हिंदूपति’ कहा गया है।
घुमक्कड़ होने के कारण इन्हें उन्नीस भाषाओं का अभ्यास था। दरबारी वाग्विलास में ये सिद्ध हो चुके थे और उसी के प्रभाव से उक्तियों में अश्लीलता का पुट लाने से बचे न रह सके। प्रांतीय भाषाओं में छंद-रचना करने के साथ ही इन्होंने फारसी-अरबी बहुल हिंदी का प्रयोग किया है । इनके वर्णनों में वैभव के प्रति आकर्षण तथा इनकी पद्माकरी शैली में वस्तु-परिगणन तथा वाग्विलास की ओर विशेष प्रवृत्ति है। भाषा में पद्माकर के समान अनुप्रासमयता, चमत्कार-विधान, कल्पना का विशेष पुट, अलंकृति और मुहावरे के उचित प्रयोग के रहते हुए भी बाज़ारूपन अवश्य आ गया है। भोग-विलास की वस्तुओं के परिगणन, षट्ऋतुवर्णन तथा शृंगारोद्दीपक ऋतु वर्णन से प्रायः काव्य में अस्वाभाविकता आ गयी है। वैसे ऋतुवर्णन विस्तृत है और विदग्धता के साथ किया गया है। ये जगदंबा तथा शिव के उपासक थे, किंतु कविता के वर्ण्य-विषय के लिए इन्होंने राधा-कृष्ण को ही विशेष रूप से चुना और उनको नायक-नायिका के रूप में वर्णित किया है। इनमें भक्ति का पुट तो कम ही है, रीति का अनुकरण और निर्वाह ही मुख्य है। फिर भी देव, पद्माकर जैसे रससिद्ध कवियों के साथ इनको आसन नहीं दिया जा सकता। रस-परिपाक तथा अभिव्यंजना-प्रभाव दोनों में ग्वाल समर्थ और सफल हुए हैं, किंतु अनुकरण, बाज़ारूपन तथा प्रतिभाजन्य विशिष्टता की कमी के कारण इन्हें प्रथम श्रेणी में स्थान नहीं दिया जा सकता। षटऋतु-वर्णन में ग्वाल सेनापति के अतिरिक्त अपना सानी नहीं रखते।