गिरिधारन के दोहे
उद्यम में निद्रा नहीं, नहिं सुख दारिद माहिं।
लोभी उर संतोष नहिं, धीर अबुध में नाहिं॥
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सकल वस्तु संग्रह करै, आवै कोउ दिन काम।
बखत परे पर ना मिलै, माटी खरचे दाम॥
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लोभ सरिस अवगुन नहीं, तप नहिं सत्य समान।
तीरथ नहिं मन शुद्धि सम, विद्या सम धन आन॥
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लोभ न कबहूं कीजिये, या में विपति अपार।
लोभी को विश्वास नहिं, करे कोऊ संसार॥
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सुख में संग मिलि सुख करै, दुख में पाछो होय।
निज स्वारथ की मित्रता, मित्र अधम है सोय॥
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उद्यम कीजै जगत में, मिले भाग्य अनुसार।
मोती मिले कि शंख कर, सागर गोता मार॥
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अति चंचल नित कलह रुचि, पति सों नाहिं मिलाप।
सो अधमा तिय जानिये, पाइय पूरब पाप॥
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आप करै उपकार अति, प्रति उपकार न चाह।
हियरो कोमल संत सम, सुहृद सोइ नरनाह॥
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सासु पासु जोहत खरी, आँखि आँसु उर लाजु।
गौनो करि गौनो चहत, पिय विदेश बस काजु॥
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रूपवती लज्जावती, सीलवती मृदु बैन।
तिय कुलीन उत्तम सोई, गरिमा धर गुन ऐन॥
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मिल्यो रहत निज प्राप्ति हित, दगा समय पर देत।
बंधु अधम तेहि कहत है, जाको मुख पर हेत॥
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धनहिं राखिये विपति हित, तिय राखिय धन त्यागि।
तजिये गिरिधरदास दोउ, आतम के हित लागि॥
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सुख दुख अरु विग्रह विपति, यामे तजै न संग।
गिरिधरदास बखानिये, मित्र सोइ वर ढंग॥
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पति देवत कहि नारि कहँ, और आसरो नाहिं।
सर्ग-सिढ़ी जानहु यही, वेद पुरान कहाहिं॥
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जनक बचन निदरत निडर, बसत कुसंगति माहिं।
मूरख सो सुत अधम है, तेहि जनमे सुख नाहिं॥
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पुन्य करिय सो नहिं कहिय, पाप करिय परकास।
कहिवे सों दोउ घटत हैं, बरनत गिरिधरदास॥
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मन सों जग को भल चहै, हिय छल रहै न नेक।
सो सज्जन संसार में, जाके विमल विवेक॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere