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गिरिधारन

1833 - 1860 | बनारस, उत्तर प्रदेश

वास्तविक नाम गोपालचंद्र। आधुनिक साहित्य के प्रणेता भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता।

वास्तविक नाम गोपालचंद्र। आधुनिक साहित्य के प्रणेता भारतेंदु हरिश्चंद्र के पिता।

गिरिधारन के दोहे

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उद्यम में निद्रा नहीं, नहिं सुख दारिद माहिं।

लोभी उर संतोष नहिं, धीर अबुध में नाहिं॥

सकल वस्तु संग्रह करै, आवै कोउ दिन काम।

बखत परे पर ना मिलै, माटी खरचे दाम॥

लोभ सरिस अवगुन नहीं, तप नहिं सत्य समान।

तीरथ नहिं मन शुद्धि सम, विद्या सम धन आन॥

लोभ कबहूं कीजिये, या में विपति अपार।

लोभी को विश्वास नहिं, करे कोऊ संसार॥

सुख में संग मिलि सुख करै, दुख में पाछो होय।

निज स्वारथ की मित्रता, मित्र अधम है सोय॥

उद्यम कीजै जगत में, मिले भाग्य अनुसार।

मोती मिले कि शंख कर, सागर गोता मार॥

अति चंचल नित कलह रुचि, पति सों नाहिं मिलाप।

सो अधमा तिय जानिये, पाइय पूरब पाप॥

आप करै उपकार अति, प्रति उपकार चाह।

हियरो कोमल संत सम, सुहृद सोइ नरनाह॥

सासु पासु जोहत खरी, आँखि आँसु उर लाजु।

गौनो करि गौनो चहत, पिय विदेश बस काजु॥

रूपवती लज्जावती, सीलवती मृदु बैन।

तिय कुलीन उत्तम सोई, गरिमा धर गुन ऐन॥

मिल्यो रहत निज प्राप्ति हित, दगा समय पर देत।

बंधु अधम तेहि कहत है, जाको मुख पर हेत॥

धनहिं राखिये विपति हित, तिय राखिय धन त्यागि।

तजिये गिरिधरदास दोउ, आतम के हित लागि॥

सुख दुख अरु विग्रह विपति, यामे तजै संग।

गिरिधरदास बखानिये, मित्र सोइ वर ढंग॥

पति देवत कहि नारि कहँ, और आसरो नाहिं।

सर्ग-सिढ़ी जानहु यही, वेद पुरान कहाहिं॥

जनक बचन निदरत निडर, बसत कुसंगति माहिं।

मूरख सो सुत अधम है, तेहि जनमे सुख नाहिं॥

पुन्य करिय सो नहिं कहिय, पाप करिय परकास।

कहिवे सों दोउ घटत हैं, बरनत गिरिधरदास॥

मन सों जग को भल चहै, हिय छल रहै नेक।

सो सज्जन संसार में, जाके विमल विवेक॥

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