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घनानंद

1673 - 1760 | दिल्ली

रीतिकालीन काव्य-धारा के महत्त्वपूर्ण कवि। रीतिमुक्त कवियों में से एक। आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा ‘साक्षात् रसमूर्ति’ की उपमा से विभूषित।

रीतिकालीन काव्य-धारा के महत्त्वपूर्ण कवि। रीतिमुक्त कवियों में से एक। आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा ‘साक्षात् रसमूर्ति’ की उपमा से विभूषित।

घनानंद का परिचय

घनानंद रीतिकालीन कवि हैं। ये बहादुरशाह के मीर मुंशी थे जो बाद में विरक्त हो वृन्दावन चले गये और वहीं रास्ते में नादिरशाह के सिपाहियों के द्वारा मार दिए गए। महाराज रघुराज सिंह के 'भक्तमाल' ग्रन्थ में इनका चरित्र दिया गया है। उसमें मथुरा में प्रचलित किंवदन्ती का आधार लिया गया है। मथुरा में जब दिल्ली के किसी शाहजादे को जूते की माला पहनाकर अपमानित किया गया तब उसने दिल्ली से सेना बुलाकर नागरिकों का कत्लेआम करवाया। उस समय घनानन्द सखी-भाव से भगवान् कृष्ण की उपासना कर रहे थे। सैनिकों ने उन्हें वहीं मार डाला। गोस्वामी श्री राधाचरण ने इनके सम्बन्ध में एक छप्पय लिखा है जिसमें कवि का वेश्या सुजान से प्रेम-सम्बन्ध उल्लिखित है। कहा जाता है कि कवि ने उसी के नाम को श्रीकृष्ण के नाम पर ढालकर छन्द रचना की। इस प्रकार कवि के जीवन की सामग्री का मुख्य आधार रघुराजसिंहजू की 'भक्तमाल' और राधाचरण गोस्वामी का छप्पय है। इनकी सामग्री किंवदन्ती पर ही आधारित है। किंवदन्ती के आधार पर ही ये निम्बार्क-मतानुयायी और सखी भावोपासक भक्त माने जाते हैं। 'मिश्रबन्धु विनोद' में भी इन्हें वेश्यासक्त बतलाया गया है। रामचन्द्र शुक्ल ने भी ‘मिश्रबन्धु-विनोद’ और गोस्वामीजी के छप्पय का आधार लिया है। जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने उनकी जन्मभूमि बुलन्दशहर को माना है।

इनके जन्म और मृत्यु के समय में भी विद्वानों में मतभेद है परन्तु यह तो उनके यत्र-तत्र बिखरे हुए पदों तथा अन्य ग्रन्थों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ये विक्रम 18 वीं और 19 वीं शताब्दी में विद्यमान थे। रामचन्द्र शुक्ल इनका जन्म-समय 1689 ई. के लगभग और विश्वनाथप्रसाद मिश्र 1673 ई. के आसपास मानते हैं। कवि की मृत्यु मथुरा में नादिरशाह के आक्रमण के समय हुई। इस आक्रमण का समय 11 मार्च सन् 1739 ई. है। इसका समर्थन ग्रियर्सन, राधाचरण गोस्वामी और रामचन्द्र शुक्ल करते हैं परन्तु इतिहासकारों के अनुसार नादिरशाह का आक्रमण केवल दिल्ली पर हुआ और वहीं भयंकर नरसंहार भी हुआ था। मथुरा पर अब्दाली दुर्रानी का दो बार आक्रमण हुआ और प्रत्येक बार नागरिकों का क़त्लेआम भी। ज्ञानवती त्रिवेदी के अनुसार घनानंद अब्दाली दुर्रानी के दूसरे कत्लेआम के समय 1660 ई. में मारे गए।

हिन्दी में आनन्द घन, घन आनन्द, घनानन्द नाम से अनेक रचनाएँ प्रचलित हैं। पहले इन सबको एक ही माना जाता रहा है। बहुत कुछ गड़बड़-झाला तो आनन्दघन कवि की अनेक नामों की छाप के कारण पैदा हुआ है। उसने आनन्दघन, घन आनन्द आदि छाप का प्रयोग किया है। कदाचित् छन्दोभंग की रक्षा के लिए कवि का नाम आनन्दघन और उपनाम घनानन्द जान पड़ता है। एक आनन्दघन जैन कवि हुए हैं। कुछ समय तक जैनधर्मी आनन्दघन कवि और घनानन्द की एकता मानी जाती रही है, पर विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने दोनों कवियों की पृथक्-पृथक् रचनाएँ छापकर भिन्नता स्पष्ट कर दी। घनानन्द ने सुजान का इतनी तन्मयता से अपने पदों में उल्लेख किया है कि उसका आध्यात्मीकरण-सा हो गया है। कहा जाता है कि सुजान मुहम्मदशाह के दरबार में, जहाँ कवि भी थे, नर्तकी (वेश्या) थी और उसी के प्रेम में कवि ने अपने को अर्पित कर दिया था; वही लौकिक प्रेम एक समय पर ईश्वरीय प्रेम में बदल गया। प्रिय-मिलन के अभाव में उपजी व्यथा घनानंद के काव्य का प्राण है। यह आत्मानुभूति उनके लगभग पदों में व्याप्त है। रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है, "रीतिकाल की बौद्धिक विरहानुभूति, निष्प्राणता और कुंठा के वातावरण में घनानंद की पीड़ा की टीस सहसा ही हृदय को चीर देती है और मन सहज ही मान लेता है कि दूसरों के लिए किराये पर आँसू बहाने वालों के बीच यह एक ऐसा कवि है जो सचमुच अपनी पीड़ा में ही रो रहा है।"

आनन्दघन या घनानन्द की रचनाएँ मुक्तक रूप में प्राप्त होती हैं। इनकी कतिपय रचनाओं का सर्वप्रथम प्रकाशन भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने 'सुन्दरी तिलक' में कराया था। सन् 1870 में उन्होंने 'सुजान शतक' नाम से इनके कवित्त प्रकाशित किए। इसके पश्चात् जगन्नाथदास ‘रत्नाकर' ने 'सुजान सागर', काशीप्रसाद जायसवाल ने ‘वियोग बेलि' और 'विरह लीला' नाम से प्रकाशित कराया। विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने कवि पर विशेष शोध करके उनकी रचनाओं के तीन संग्रह प्रकाशित किए। घनानन्द कवित्त (जिसमें 288 सवैये और 214 कवित्त हैं) में कवि के सम-सामयिक काव्य-प्रेमी ब्रजनाथ द्वारा संगृहीत प्रति का उपयोग किया गया है, जो कवि की कृतियों का प्राचीनतम संग्रह माना जाता है। दूसरे संग्रह में कवित्त, सवैयों के अतिरिक्त घनानन्द के 500 पद, 'वियोग बेलि', 'इश्कलता', 'यमुनायश', 'प्रीति पावस' तथा 'प्रेम पत्रिका' का संग्रह है। घनानन्द ग्रन्थावली का प्रकाशन 1952 ई. में हुआ। इसमें घनानंद की 'कवित्त सवैयों का संग्रह', 'पदावली', 'कृपाकन्द', 'वियोगबेलि', 'इश्कलता', 'यमुनायश', ‘प्रीतिपावस', 'प्रेमपत्रिका', 'अनुभवचन्द्रिका', 'रंगबधाई', 'प्रेम पद्धति', 'वृषभानपुर सुषमा वर्णन', ‘गोकुल गीत', ‘नाममाधुरी', 'गिरिपूजन', ‘विचारसार', 'दानघटा’, 'भावनाप्रकाश', 'ब्रजस्वरूप', 'प्रेम-पहेली', 'रसायनयश', 'गोकुल विनोद', ‘कृष्ण कौमुदी', ‘धाम चमत्कार', ‘प्रियाप्रसाद', ‘वृन्दावन मुद्रा', 'ब्रजप्रसाद', 'गोकुलचरित्र', 'मुरली का मोद', 'मनोरथ मंजरी', 'गिरिगाथा', 'ब्रजव्योहार', 'छंदाष्टक', 'त्रिभंगी', 'परमहंसावली', आदि कई पुस्तकें प्रकाशित की गयी हैं।

रामचन्द्र शुक्ल ने कवि को रोमांटिक-धारा का श्रेष्ठ कवि कहा है। इनकी प्रेम-पद्धति पर विचार करते हुए शुक्ल ने लिखा है कि “प्रेम की पीर ही को लेकर इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ। प्रेम की अनिर्वचनीयता का आभास घनानंद ने विरोधाभासों के द्वारा दिया है।“ उसकी ब्रजभाषा सजीव, लाक्षणिकता तथा व्यंजना प्रचुर और व्याकरणसम्मत है। आचार्य शुक्ल के अनुसार “इनकी सी विशुद्ध, सरस और शक्तिशालिनी ब्रजभाषा लिखने में और कोई समर्थ नहीं हुआ। विशुद्धता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व है।“ अपने भावों में फ़ारसी काव्य से अनुप्राणित होते हुए भी कवि ने भाषा में उसका बेमेल मिश्रण नहीं होने दिया। कवि ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग में पटु है। लाक्षणिक भाषा की प्रशंसा करते हुए आगे आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि “घनानंदजी उन विरले कवियों में हैं जो भाषा की व्यंजकता बढ़ाते हैं। अपनी भावनाओं के अनूठे रूपरंग की व्यंजना के लिए भाषा का ऐसा बेधड़क प्रयोग करने वाला हिन्दी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ। भाषा के लक्षण और व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है, इसकी पूरी परख इन्हीं को थी। लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और प्रयोगवैचित्र्य की जो छटा इनमें दिखायी पड़ी, खेद है कि वह फिर पौने दो सौ वर्ष पीछे जाकर आधुनिक काल के उत्तरार्द्ध में, अर्थात् वर्तमान काल की नूतन काव्य धारा में ही, 'अभिव्यंजनावाद' के प्रभाव से कुछ विदेशी रंग लिए प्रकट हुई।“ स्पष्ट है कि घनानंद रीतिमुक्त कवियों में सर्वश्रेष्ठ हैं।

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