देवसेन का परिचय
मूल नाम : देवसेन
मुनि देवसेन का इतिवृत्त अज्ञात-सा ही है। इतना ही कहा जा सकता है कि यह एक उच्चकोटि के जैन संत थे। देवसेन प्रसिद्ध जैन ग्रंथ ‘श्रावकाचार’ के लिए जाने जाते हैं, जिसे डॉ. नगेंद्र ने हिन्दी की पहली रचना माना है। ‘श्रावकाचार’ की रचना 933 ई. में हुई। इस ग्रंथ में 250 दोहों में श्रावक-धर्म का प्रतिपादन किया गया है। देवसेन के अन्य ग्रंथों में ‘नयचक्र', ‘दर्शन सार’, ‘भाव संग्रह’, ‘आराधनासार’, ‘तत्त्वसार तथा ‘सावय धम्म दोहा' की चर्चा की जाती है। ‘नयचक्र’ को ‘लघुनयचक्र’ भी कहा जाता है। ‘सावय धम्म दोहा’ का रचयिता कौन था, यह प्रश्न वर्षों तक विवादास्पद था। लक्ष्मीचंद्र या लक्ष्मीधर को इस ग्रंथ का कर्त्ता मान लिया गया था, और कुछ विद्वानों ने सुप्रसिद्ध जैन मुनि योगींद्रदेव को इसका रचयिता माना था। श्री हीरालाल जैन ने गहन शोध के बाद 'सावय धम्म दोहा' का कर्त्ता मुनि देवसेन को सिद्ध किया है। उनका निर्णय अनेक दृष्टियों से प्रामाणिक है। योगींद्रदेव की रचनाओं और ‘सावय धम्म दोहा’ में, भाषा और विषय दोनों ही दृष्टियों से अंतर पाया जाता है, जबकि देवसेन रचित ‘भाव संग्रह’ तथा ‘सावय धम्म दोहा’ में विशेष सादृश्यताएँ मिली हैं।
मुनि देवसेन मालवा प्रदेश के निवासी थे और 10 वीं शताब्दी में विद्यमान थे। ‘दर्शन सार’ ग्रंथ की रचना देवसेन ने धारा नगरी के पार्श्वनाथ मंदिर में बैठकर सवत् 990 में की थी।
'सावय धम्म दोहा' ग्रंथ का विषय श्रावक का धर्म अथवा आचार है। सामान्य गृहस्थों के लिए ‘सावय धम्म दोहा’ की रचना की गई है। श्रावक का भी जीवन-ध्येय विषय-भोगों का सेवन नहीं है, किंतु आत्मदर्शन से उपलब्ध आनंद ही उसका साध्य है, जिसके साधन हैं सत्य, अहिंसा, शील, सदाचार तथा इंद्रियजन्य सुखों से उपराम।
श्रावक धर्म, मुनि देवसेन के कथानानुसार सबके लिए है। उसका साधक चाहे ब्राह्मण हो चाहे शूद्र, अथवा जैन हो या अजैन। उनका एक दोहा है—
"एहु धम्म जो आयरइ वभणु सुद्दवि कोइ।
सो सावउ कि सावयह अण्णु कि सिर मणि होइ॥"
अर्थात् इस धर्म का जो भी आचरण करता है, फिर चाहे ब्राह्मण हो या शूद्र, कोई भी हो, वही श्रावक है। श्रावक के सिर पर क्या कोई मणि चिपकी रहती है?
अवहट्ट यानी अपभ्रष्ट भाषा का यह अति प्राचीन ग्रंथ है। इसका अच्छा प्रचार और आदर था। लक्ष्मीचंद्र ने 'सावय धम्म' पर एक पंजिका और मुनि प्रभातचंद्र ने 'तत्त्वदीपिका' नाम की वृत्ति लिखी है।