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देवसेन

820 - 870

जैन कवि। प्राकृत भाषा में ‘स्याद्वाद’ और ‘नय’ का निरूपण करने के लिए उल्लेखनीय।

जैन कवि। प्राकृत भाषा में ‘स्याद्वाद’ और ‘नय’ का निरूपण करने के लिए उल्लेखनीय।

देवसेन के दोहे

सत्थसएण वियाणियहँ धम्मु चढइ मणे वि।

दिणयर सउ जइ उग्गमइ, धूयडुं अंधड तोवि॥

सैकड़ों शास्त्रों को जान लेने पर भी [ज्ञान के विरोधी के] मन पर धर्म नहीं चढ़ता। यदि सौ दिनकर भी उग आएँ तो भी उल्लू के लिए अँधेरा ही रहे।

सत्त वि महुरइँ उवसमइ, सयल वि जिय वसि हुंति।

चाइ कवित्तें पोरिसइँ, पुरिसहु होइ कित्ति॥

मधुर व्यवहार से शत्रु भी शांत हो जाता है और सभी जीव वश में हो जाते हैं। त्याग, कवित्व और पौरुष से ही पुरुष की कीर्ति नहीं होती।

णिद्धण-मणुयह कट्ठडा, सज्जमि उण्णय दिंति।

अह उत्तमपइ जोडिया, जिय दोस वि गुण हुंति॥

निर्धन मनुष्य के कष्ट संयम बढ़ाते हैं। अच्छे का साथ पाकर दोष भी गुण हो जाते हैं।

जं दिज्जह तं पाविअइ, एउ वयण विसुद्धु।

गाइ पइण्णइ खडभुसइँ कि पयच्छइ दुद्धु॥

अगर दिया जाता है तो प्राप्त भी होता है, यह वचन क्या सही नहीं है? गाय को खली-भूसा खिलाया जाता है तो क्या वह दूध नहीं देती?

काइँ बहुत्तइँ जंपिअइँ, जं अप्पणु पडिकूलु।

काइँ मि परहु तं करहि, एहु जु धम्मह मूलु॥

बहुत कल्पना करने से क्या फ़ायदा? जैसा (व्यवहार) अपने अनुकूल हो वैसा दूसरों के प्रति भी करो। यही धर्म का मूल है।

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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