चंद्रगुप्त विद्यालंकार का परिचय
चंद्रगुप्त का जन्म सन् 1915 में पश्चिमी पंजाब के गोविंदगढ़ नामक स्थान पर हुआ था, जिसका संबंध गुरु गोविंद सिंह जी के युवावस्था के संघर्ष से है।
विद्यालंकार जी के पिता श्री लक्ष्मणदास आर्यसमाजी विचारों के थे एवं रेलवे में स्टेशन-मास्टर के पद पर कार्य करते थे। चंद्रगुप्त आरंभ से ही अँग्रेज़ी माध्यम के स्कूल के मेधावी छात्र थे, किंतु आपने हिंदी-संस्कृत के माध्यम से विद्या ग्रहण करने का आग्रह किया। फलत: आर्य गुरुकुल मुल्तान में प्रविष्ट हुए। इसी क्रम में उच्च शिक्षा के लिए आप गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार में गए और 1937 में स्नातक होकर 'वेदालंकार' की उपाधि प्राप्त की। विद्यार्थी-काल में ही लेखनी और वक्तृत्व-कला में अनेकों पुरस्कार प्राप्त किए। बाद में वहाँ ही अध्यापक के पद पर आपकी नियुक्ति हो गई।
इसी काल में अर्थात् 1939 में 25 वर्ष की अवस्था में ही शोध ग्रंथ 'बृहत्तर भारत' की रचना की। आपकी ‘क्रांतिकारी वीर सावरकरजी के रोमांचकारी जीवन की गाथा’ एवं ‘अंतर्ज्वाला' जैसी पुस्तकें उल्लेखनीय हैं।
'बृहत्तर भारत' ग्रंथ के प्रकाशन के तुरंत बाद ही विद्यालंकारजी को पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर में 1939 के अंत में प्राचीन ग्रंथों एवं इतिहास की अनुसंघान समिति का सदस्य नियुक्त किया गया। 1940 में आपने वीर सावरकर, भाई परमानंद तथा डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ राजनीति में भाग लेना आरंभ कर दिया और इस बीच दो बार जेल-यात्रा भी कर आए। दो-तीन वर्ष में ही अपने आकर्षक व्यक्तित्व, ओजस्वी भाषण-शैली एवं गंभीर विचार-शक्ति के कारण आप हिंदू-आंदोलन की एक प्रसिद्ध विभूति माने जाने लगे थे।
विद्यालंकारजी का विवाह बिहार शरीफ़ (जिला पटना) के प्रसिद्ध आर्य नेता श्री महेश बाबू की पुत्री शारदा देवी से 1941 में सम्पन्न हुआ था, जिनसे दो संतानें, एक पुत्री पूर्णिमा एवं पुत्र प्रदीप हैं। शारदा जी बिहार के शिक्षा-क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं और फरवरी 1980 में आपने भागलपुर के सुंदरवती महिला महाविद्यालय की प्राचार्या के पद से अवकाश ग्रहण किया है।
आपका निधन सन् 1945 में केवल 31 वर्ष की आयु में ही हो गया।