भक्त रूपकला के दोहे
श्री जानकि-पद-कंज सखि, करहि जासु उर ऐन।
बिनु प्रयास तेहि पर द्रवहि, रघुपति राजिव नैन॥
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खात पियत बीती निसा, अँचवत भा भिनुसार।
रूपकला धिक-धिक तोहि, गर न लगायो यार॥
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देह खेह बद्ध कर्म महँ, पर यह मानस नेम।
कर जोड़े सन्मुख सदा, सादर खड़ा सप्रेम॥
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धन्य-धन्य जे ध्यावही, चरण-चिन्ह सियराम के।
धनि-धनि जन जे पूजही, साधु संत श्रीधाम के॥
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तजि कुसंग सत्संग नित, कीजिय सहित विवेक।
संप्रदाय निज की सदा, राखिये सादर टेक॥
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दोष-कोष मोहि जानि पिय, जो कुछ करहू सो थोर।
अस विचारि अपनावहु, समझि आपुनी ओर॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere