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भक्त रूपकला

1840 - 1932 | छपरा, बिहार

रसिक भक्त कवि। रामकथा वाचक और भक्तमाल के टीकाकार।

रसिक भक्त कवि। रामकथा वाचक और भक्तमाल के टीकाकार।

भक्त रूपकला के दोहे

श्री जानकि-पद-कंज सखि, करहि जासु उर ऐन।

बिनु प्रयास तेहि पर द्रवहि, रघुपति राजिव नैन॥

खात पियत बीती निसा, अँचवत भा भिनुसार।

रूपकला धिक-धिक तोहि, गर लगायो यार॥

देह खेह बद्ध कर्म महँ, पर यह मानस नेम।

कर जोड़े सन्मुख सदा, सादर खड़ा सप्रेम॥

धन्य-धन्य जे ध्यावही, चरण-चिन्ह सियराम के।

धनि-धनि जन जे पूजही, साधु संत श्रीधाम के॥

तजि कुसंग सत्संग नित, कीजिय सहित विवेक।

संप्रदाय निज की सदा, राखिये सादर टेक॥

दोष-कोष मोहि जानि पिय, जो कुछ करहू सो थोर।

अस विचारि अपनावहु, समझि आपुनी ओर॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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