बखना के दोहे
हरि रस महंगा मोल कौ, 'बखना' लियौ न जाइ।
तन मन जोबन शीश दे सोई पीवौ आइ॥
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बन मैं होती केतकी, जरी जु काहूं दंगि।
भँवर प्रीति कै कारणैं, भसम चढावत अंगि॥
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पहली था सौ अब नहीं, अब सौ पछैं न थाइ।
हरि भजि विलम न कीजिये, 'बखना' बारौ जाइ॥
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दूध मिल्यौ ज्यूं नीर मैं, जल मिसरी इकरूप।
सेवग स्वांमी नांव द्वै, 'बखना' एक सरूप॥
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