अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध का परिचय
उपनाम : 'हरिऔध'
मूल नाम : आयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
जन्म : 15/04/1865 | आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश
निधन : 16/03/1947 | आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के निज़ामाबाद में 1865 ई० में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई जहाँ उन्होंने उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी, बांग्ला और अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य का अध्ययन किया था। उनके कार्य-जीवन का आरंभ मध्य विद्यालय के प्रधानाध्यापक के रूप में हुआ और बाद में क़ानूनगो के रूप में भी कार्य किया। इसके बाद फिर उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अवैतनिक प्राध्यापक के रूप में सेवा दी।
उनकी प्रतिष्ठा खड़ी बोली को काव्य-भाषा के रूप में स्थापित करने वाले प्रमुख कवियों के रूप में है और इस क्रम में उनकी कृति ‘प्रिय प्रवास’ को खड़ी बोली का पहला महाकाव्य कहा जाता है। यही कृति उनकी सर्वाधिक प्रसिद्धि का भी कारण है। हिंदी के तीन युगों—भारतेंदु युग, द्विवेदी युग और छायावादी युग—में विस्तृत उनका रचनात्मक योगदान उन्हें हिंदी कविता के आधार-स्तंभों में से एक के रूप में स्थान दिलाता है।
काव्य के साथ ही उन्होंने गद्य विधा में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। वस्तुतः आरंभ में वह नाटक और उपन्यास की ओर ही अधिक प्रवृत्त हुए थे, लेकिन उनकी प्रतिभा का विकास मूलतः कवि रूप में ही अधिक हुआ।
प्रमुख कृतियाँ :
काव्य : प्रियप्रवास, वैदेही वनवास, काव्योपवन, रसकलश, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पारिजात, कल्पलता, मर्मस्पर्श, पवित्र पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई
उपन्यास : ठेठ हिंदी का ठाट, अधखिला फूल
नाटक: रुक्मिणी परिणय, प्रद्युम्न विजय व्यायोग
ललित निबंध : संदर्भ सर्वस्व
आत्मकथात्मक रचना : इतिवृत्त
आलोचना : हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, विभूतिमती ब्रजभाषा
संपादन : कबीर वचनावली
वह दो बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रहे थे। उन्हें ‘प्रिय प्रवास’ के लिए मंगला प्रसाद पारितोषिक से सम्मानित किया गया था।
16 मार्च, 1947 को 76 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।