अम्मिए जो सो जि परु परु अप्पाण ण होइ।
हउं डज्झउ सो उव्वरइ वलिवि ण जोवइ तो इ।।51।।
मूढा सरलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ।
जीवहु जंत ण कुडि गइय इउ पडिछंदा जोइ।।52।।
देहादेवलि जो वसइ सतिहिं सहियउ देउ।
को तहिं जोइय सतिसिउ सिग्घु गवेसहि भेउ।।53।।
जरइ ण मरइ ण संभवइ जो परि को वि अणंतु।
तिहुवणसामिउ णाणमउ सो सिवदेउ णिभंतु।।54।।
सिव विणु सति ण वावरइ सिउ पुणु सतिविहीणु।
दोहिं मि जाणहिं सयलु जगु बुज्झइ मोहविलीणु।।55।।
अण्णु तुहारउ णाणमउ लक्खिउ नाम ण भाउ।
संकप्पवियप्पिउ णाणमउ दड्ढउ चित्तु वराउ।।56।।
णिच्चु णिरामउ णाणमउ परमाणंदसहाउ।
अप्पा बुज्झिउ जेण परु तासु ण अण्णु हि भाउ।।57।।
अम्हहिं जाणिउ एकु जिणु जाणिउ देउ अणंतु।
णचिरिसु मोहें मोहियउ अच्छइ दूरि भमंतु।।58।।
अप्पा केवलणाणमउ हियडइ णिवसइ जासु।
तिहुयणि अच्छइ मोक्कलउ पाउ ण लग्गइ तासु।।59।।
चिंतइ जंपइ कुणइ ण वि जो मुणि बंधणहेउ।
केवलाणाणफुरंततणु सो परमप्पउ देउ।।60।।
अहो, जो पर है सो पर ही है, कभी आत्मा नहीं होता। शरीर तो दग्ध होता है और आत्मा चली जाती है, वह पीछे मुड़कर भी नहीं देखती।
रे मूढ़। ये सब तो कर्म जंजाल हैं, कुछ स्वाभाविक नहीं है। देख, जीव चला गया किंतु देह कुटीर उसके साथ नहीं गई—इस दृष्टांत से दोनों की भिन्नता देख।
देहरूपी देवालय में जो शक्ति सहित देव वास करता है, हे योगी! वह शक्तिमान शिव कौन है? इस भेद को तू शीघ्र पहचान।
जो न जीर्ण होता है, न मरता है; न उपजता है। जो सबसे पर, कोई अनंत है; त्रिभुवन का स्वामी है और ज्ञानमय है। वह शिवदेव है—ऐसा तुम निर्भ्रांत जानो।
शिव के बिना शक्ति का व्यापार नहीं हो सकता और शक्तिविहीन शिव भी कुछ कर नहीं सकता। इन दोनों के मिलन होते ही मोह का नाश होकर सकल जगत का बोध होता है।
तेरी आत्मा ज्ञानमय है, उसके भाव को जब तक नहीं देखा, तब तक चित बेचारा दग्ध और संकल्प-विकल्प सहित अज्ञान-रूप प्रदर्शित करता है।
नित्य, निरामय, ज्ञानमय परमानंद स्वभाव-रूप उत्कृष्ट आत्मा जिसने जान ली, उसको अन्य कोई भाव नहीं रहता।
हमने एक जिन को जान लिया तो अनंत देव को जान लिया, इसके जाने बिना मोह से मोहित जीव दूर भ्रमण करता है।
केवल ज्ञानमय आत्मा जिसके हृदय में निवास करती है, वह तीन लोक में मुक्त रहता है और उसे कोई पाप नहीं लगता।
जो मुनि मन से, वचन से और काया से बंधन के हेतु को स्वीकार नहीं करता, वही केवलज्ञान से स्फुरायमान देह वाला परमात्मदेव है।
- पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 20)
- संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
- रचनाकार : मुनि राम सिंह
- प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
- संस्करण : 1992
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