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कामायनी (श्रद्धा सर्ग)

kamayani (shardha sarg)

जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद

कामायनी (श्रद्धा सर्ग)

जयशंकर प्रसाद

और अधिकजयशंकर प्रसाद

    “कौन तुम! संसृति-जलनिधि तीर

    तरंगों से फेंकी मणि एक,

    कर रहे निर्जन का चुपचाप

    प्रभा की धारा से अभिषेक!

    मधुर विश्रांत और एकांत—

    जगत का सुलझा हुआ रहस्य,

    एक करुणामय सुंदर मौन

    और चंचल मन का आलस्य!”

    सुना यह मनु ने मधु-गुंजार

    मधुकरी का-सा जब सानंद,

    किए मुख नीचा कमल समान

    प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छंद;

    एक झिटका-सा लगा सहर्ष,

    निरखने लगे लुटे-से, कौन—

    गा रहा यह सुंदर संगीत?

    कुतूहल रह सका फिर मौन!

    और देखा वह सुंदर दृश्य

    नयन का इंद्रजाल अभिराम;

    कुसुम-वैभव में लता समान

    चंद्रिका से लिपटा घन श्याम।

    हृदय की अनुकृति बाह्य उदार

    एक लंबी काया, उन्मुक्त;

    मधु पवन क्रीड़ित ज्यों शिशु साल

    सुशोभित हो सौरभ संयुक्त।

    मसृण गांधार देश के, नील

    रोम वाले मेघों के चर्म,

    ढँक रहे थे उसका वपु कांत

    बन रहा था वह कोम वर्म।

    नील परिधान बीच सुकुमार

    खुल रहा मृदुल अधखुला अंग;

    खिला हो ज्यों बिजली का फूल

    मेघ-बन बीच गुलाबी रंग।

    आह! वह मुख! पश्चिम के व्योम—

    बीच जब घिरते हों घन श्याम;

    अरुण रवि-मंडल उनको भेद

    दिखाई देता हो छविधाम।

    या कि, नव इंद्र नील लघु शृंग

    फोड़ कर धधक रही हो कांत;

    एक लघु ज्वालामुखी अचेत

    माधवी रजनी में अश्रांत।

    घिर रहे थे घुँघराले बाल

    अंस अवलंबित मुख के पास;

    नील घन-शावक से सुकुमार

    सुधा भरने को विधु के पास।

    और उस मुख पर वह मुस्क्यान!

    रक्त किसलय पर ले विश्राम

    अरुण की एक किरण अम्लान

    अधिक अलसाई हो अभिराम।

    नित्य यौवन छवि से ही दीप्त

    विश्व की करुण कामना मूर्ति;

    स्पर्श के आकर्षण से पूर्ण

    प्रकट करती ज्यों जड़ से स्फूर्ति।

    उषा की पहिली लेखा कांत,

    माधुरी से भींगी भर मोद;

    मद भरी जैसे उठे सलज्ज

    भोर की तारक द्युति की गोद।

    कुसुम कानन-अंचल में मंद

    पवन प्रेरित सौरभ साकार,

    रचित परमाणु पराग शरीर

    खड़ा हो ले मधु का आधार।

    और पड़ती हो उस पर शुभ्र

    नवल मधु-राका मन की साध;

    हँसी का मद विह्वल प्रतिबिंब

    मधुरिमा खेला सदृश अबाध।

    कहा मनु ने, “नभ धरणी बीच

    बना जीवन रहस्य निरुपाय;

    एक उल्का-सा जलता भ्रांत,

    शून्य में फिरता हूँ असहाय।

    शैल निर्झर बना हतभाग्य

    गल नहीं सका जो कि हिम-खंड,

    दौड़कर मिला जलनिधि अंक

    आह वैसा ही हूँ पाषंड।

    पहेली-सा जीवन है व्यस्त

    उसे सुलझाने का अभिमान,

    बताता है विस्मृति का मार्ग

    चल रहा हूँ बन कर अनजान।

    भूलता ही जाता दिन-रात

    सजल अभिलाषा कलित अतीत;

    बढ़ रहा तिमिर गर्भ में नित्य,

    दीन जीवन का यह संगीत।

    क्या कहूँ, क्या कहूँ मैं उद्भ्रांत?

    विवर में नील गगन के आज,

    वायु की झटकी एक तरंग,

    शून्यता का उजड़ा-सा राज।

    एक विस्मृति का स्तूप अचेत,

    ज्योति का धुँधला-सा प्रतिबिंब;

    और जड़ता की जीवन राशि

    सफलता का संकलित विलंब।

    “कौन हो तुम वसंत के दूत?

    विरस पतझड़ में अति सुकुमार!

    घन तिमिर में चपला की रेख,

    तपन में शीतल मंद बयार।

    नखत की आशा किरण समान,

    हृदय की कोमल कवि की कांत—

    कल्पना की लघु लहरी दिव्य

    कर रही मानस हलचल शांत!”

    लगा कहने आगंतुक व्यक्ति

    मिटाता उत्कंठा सविशेष;

    दे रहा हो कोकिल सानंद

    सुमन को ज्यों मधुमय संदेश:-

    “भरा था मन में नव उत्साह

    सीख लूँ ललित कला का ज्ञान

    इधर रह गंधर्वों के देश

    पिता की हूँ प्यारी संतान।

    घूमने का मेरा अभ्यास,

    बढ़ा था मुक्त व्योम-तल नित्य;

    कुतूहल खोज रहा था व्यस्त

    हृदय सत्ता का सुंदर सत्य।

    दृष्टि जब जाती हिम-गिरि ओर

    प्रश्न करता मन अधिक अधीर,

    धरा की यह सिकुड़न भयभीत

    आह कैसी है? क्या है पीर?

    मधुरिमा में अपनी ही मौन,

    एक सोया संदेश महान,

    सजग हो करता था संकेत;

    चेतना मचल उठी अनजान।

    बढ़ा मन और चले ये पैर,

    शैल मालाओं का शृंगार;

    आँख की भूख मिटी यह देख

    आह कितना सुंदर संभार!

    एक दिन सहसा सुंधु अपार

    लगा टकराने नग तल क्षुब्ध;

    अकेला यह जीवन निरुपाय

    आज तक घूम रहा विश्रब्ध।

    यहाँ देखा कुछ बलि का अन्न,

    भूत-हित-रत किसका यह दान!

    इधर कोई है अभी सजीव

    हुआ ऐसा मन में अनुमान।

    तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत?

    वेदना का यह कैसा वेग?

    आह! तुम कितने अधिक हताश

    बताओ यह कैसा उद्वेग!

    हृदय में क्या है नहीं अधीर,

    लालसा जीवन की निश्शेष?

    कर रहा वंचित कहीं त्याग

    तुम्हें, मन में धर सुंदर वेश!

    दु:ख के डर से तुम अज्ञात

    जटिलताओं का कर अनुमान,

    काम से झिझक रहे हो आज,

    भविष्यत् से बन कर अनजान।

    कर रही लीलामय आनंद,

    महा चिति सजग हुई सी व्यक्त,

    विश्व का उन्मीलन अभिराम

    इसी में सब होते अनुरक्त।

    काम मंगल से मंडित श्रेय

    स्वर्ग, इच्छा का है परिणाम;

    तिरस्कृत कर उसको तुम भूल

    बनाते हो असफल भवधाम।

    “दु:ख की पिछली रजनी बीच

    विकसता सुख का नवल प्रभात;

    एक परदा यह झीना नील

    छिपाए है जिसमें सुख गात।

    जिसे तुम समझे हो अभिशाप,

    जगत की ज्वालाओं का मूल;

    ईश का वह रहस्य वरदान,

    कभी मत इसको जाओ भूल।

    विषमता की पीड़ा से व्यस्त

    हो रहा स्पंदित विश्व महान;

    यही दु:ख सुख विकास का सत्य

    यही भूमा का मधुमय दान।

    नित्य समरसता का अधिकार,

    उमड़ता कारण जलधि समान;

    व्यथा से नीली लहरों बीच

    बिखरते सुखमणि गण द्युतिमान!”

    लगे कहने मनु सहित विषाद:-

    “मधुर मारुत से ये उच्छ्वास

    अधिक उत्साह तरंग अबाध

    उठाते मानस में सविलास।

    किंतु जीवन कितना निरुपाय!

    लिया है देख नहीं संदेह

    निराशा है जिसका परिणाम

    सफलता का वह कल्पित गेह।“

    कहा आगंतुक ने सस्नेह:-

    “अरे तुम इतने हुए अधीर!

    हार बैठे जीवन का दाँव,

    जीतते मर कर जिसको वीर।

    तप नहीं केवल जीवन सत्य

    करुण यह क्षणिक दीन अवसाद;

    तरल आकांक्षा से है भरा

    सो रहा आशा का आह्लाद।

    प्रकृति के यौवन का शृंगार

    करेंगे कभी बासी फूल;

    मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र

    आह उत्सुक है उनकी धूल।

    पुरातनता का यह निर्मोक

    सहन करती प्रकृति पल एक;

    नित्य नूतनता का आनंद

    किए हैं परिवर्तन में टेक।

    युगों की चट्टानों पर सृष्टि

    डाल पद-चिह्न चली गंभीर;

    देव, गंधर्व, असुर की पंक्ति

    अनुसरण करती उसे अधीर।

    “एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड

    प्रकृति वैभव से भरा अमंद;

    कर्म का भोग, भोग का कर्म

    यही जड़ का चेतन आनंद।

    अकेले तुम कैसे असहाय

    यजन कर सकते? तुच्छ विचार!

    तपस्वी! आकर्षण से हीन

    कर सके नहीं आत्म विस्तार।

    दब रहे हो अपने ही बोझ

    खोजते भी कहीं अवलंब;

    तुम्हारा सहचर बन कर क्या

    उऋण होऊँ मैं बिना विलंब?

    समर्पण लो सेवा का सार

    सजल संसृति का यह पतवार,

    आज से यह जीवन उत्सर्ग

    इसी पद तल में विगत विकार।

    दया, माया, ममता लो आज,

    मधुरिमा लो, अगाध विश्वास;

    हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ

    तुम्हारे लिए खुला है पास।

    बनो संसृति के मूल रहस्य

    तुम्हीं से फैलेगी वह बेल;

    विश्व भर सौरभ से भर जाए

    सुमन खेलो सुंदर खेल।

    “और यह क्या तुम सुनते नहीं

    विधाता का मंगल वरदान—

    ‘शक्तिशाली हो, विजयी बनो,

    विश्व में गूँज रहा जय गान।

    “डरो मत अरे अमृत संतान

    अग्रसर है मंगलमय वृद्धि;

    पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र

    खिंची आवेगी सकल समृद्धि।

    देव-असफलताओं का ध्वंस

    प्रचुर उपकरण जुटाकर आज;

    पड़ा है बन मानव संपत्ति

    पूर्ण हो मन का चेतन राज।

    चेतना का सुंदर इतिहास

    अखिल मानव भावों का सत्य;

    विश्व के हृदय-पटल पर दिव्य

    अक्षरों से अंकित हो नित्य।

    विधाता की कल्याणी सृष्टि

    सफल हो इस भूतल पर पूर्ण;

    पटें सागर, बिखरें ग्रह-पुंज

    और ज्वालामुखियाँ हों चूर्ण।

    उन्हें चिंगारी सदृश सदर्प

    कुचलती रहे खड़ी सानंद;

    आज से मानवता की कीर्ति

    अनिल, भू, जल में रहे बंद।

    जलधि में फूटें कितने उत्स

    द्वीप, कच्छप डूबें-उतराएँ;

    किंतु वह खड़ी रहे दृढ़ मूर्ति

    अभ्युदय का कर रही उपाय।

    विश्व की दुर्बलता बल बने,

    पराजय का बढ़ता व्यापार

    हँसाता रहे उसे सविलास

    शक्ति का क्रीड़ामय संचार।

    शक्ति के विद्युत्कण, जो व्यस्त

    विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय;

    समन्वय उसका करें समस्त

    विजयिनी मानवता हो जाए।

    एक दिन जब मनु विभिन्न विचारों में लीन थे तब अचानक उन्हें ऐसा जान पड़ा कि कोई उनसे यह कह रहा है—“जिस प्रकार समुद्र की लहरें समुद्र में भीषण उथल-पुथल मचाकर सतह से मणियों को निकालकर फेंक देती हैं उसी प्रकार इस संसार रूपी समुद्र की लहरों अर्थात् सांसारिक आघातों से ठुकराए हुए मणि के समान तुम कौन हो? साथ ही जिस प्रकार समुंदर तट पर पड़ी हुई वह मणि अपनी आभा से समीपवर्ती प्रदेश को पूर्णत: जगमगा देती है और उस शून्य स्थान में उसका प्रकाश फैल जाता है उसी प्रकार इस सागर के समीप चुपचाप बैठे, अपने अपूर्व व्यक्तित्व की आभा प्रकट करने वाले तुम कौन हो।”

    कवि का कहना है कि उस आगंतुक ने मनु से यह पूछा कि “तुम इस एकांत स्थान में क्यों बहुत थके हुए और आलस्य से भरे हुए बैठे हो तथा तुम्हारी शांतिपूर्ण मनोहर आकृति पर जो एक अपूर्व माधुर्य-सा दीख पड़ता हे उससे ऐसा प्रतीत होता है कि मानो तुमने इस जगत का रहस्य भली भाँति जान लिया है। साथ ही तुम्हारी मौनता केवल तुम्हारे बाह्य सौंदर्य का बोध कराती है बल्कि उससे यह भी स्पष्ट हो जाता है तुम्हारा हृदय करुणाशील है, अर्थात् कोमल भावनाओं से पूर्ण है और उसमें चंचलता का लेश मात्र भी नहीं है।” वास्तव में इन पंक्तियों में कवि ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि मनु वहाँ एकाग्र-चित्त हो किसी बात पर विचार कर रहे थे और उनकी मुखाकृति से व्यग्रता झलक उठती थी तथा यह भी आभास होता था कि उनके अतरतम में कोई व्यथा छिपी हुई है।

    कवि कह रहा है कि जब उस आगंतुक ने कमल के समान कोमल मुख को झुकाए हुए भ्रमरी की मधुर गुँजार की भाँति वाणी में ये पंक्तियाँ मनु से कहीं तब मनु का हृदय स्वाभाविक ही आनंदित हो उठा। यहाँ यह स्मरणीय है कि कवि ने अभी तक इन दस पंक्तियों में कहीं भी आगंतुक का परिचय नहीं दिया है परंतु यहाँ इन दस पंक्तियों में कहीं भी आगंतुक का परिचय नहीं दिया है परंतु यहाँ इन दो पंक्तियों से यह अनुभव हो जाता है कि वह कोई सुंदर, मृदुभाषिणी, लज्जाशील, करुणामयी नारी ही है क्योंकि उसका मुख कमल के समान तथा वाणी भ्रमरी की गुँजार जैसी मधुर कहीं गई है और साथ ही कवि यह भी कहता है उसने अपना सिर नीचे झुका लिया था। इन पंक्तियों में स्वाभाविकता भी है क्योंकि जब आगंतुक के मुख को कमल माना गया है तब उसकी वाणी को भ्रमरी की गूँज मानना युक्तिसंगत ही है। कवि पुन: कहता है कि आगंतुक की वाणी मनु को उसी प्रकार अनायास निकली हुई जान पड़ी जैसा कि आदि कवि के मुख से अनायास ही मधुर छंद निकल पड़ा था।

    कवि कह रहा कि आगंतुक की मधुर वाणी को सुनते ही मनु के रोम-रोम में हर्ष की विद्युत लहर-सी प्रवाहित होने लगी और वे अत्यधिक प्रसन्न हुए तथा उन्हें ऐसा जान पड़ा कि मानो कोई उनके हृदयरूपी धन को लूट लिए जा रहा है। कवि के कहने का अभिप्राय यह है कि मनु को अपना हृदय उस ओर आकृष्ट होता सा जान पड़ने लगा और वे मुग्ध तथा आश्चर्यचकित हो उसी की ओर देखने लगे जिस ओर उन्हें यह वाणी सुनाई पड़ी थी। मनु का मन यह जानने को उत्सुक हो उठा कि आख़िर किस कोमल कंठ से यह वाणी निवृत हुई है पर उन्हें अपने मन की कौतूहलता अधिक देर तक दबाकर नहीं रखनी पड़ी।

    कवि का कहना है कि मनु को अपने सामने एक सुंदर नारी मूर्ति दिखाई दी जो कि उनके नेत्रों पर मोहक जादू-सा डाल रही थी अर्थात् उन्हें अत्यधिक आवश्यक प्रतीत हो रही थी और यही कारण है कि ज्योंही उन्होंने उसे देखा त्योंही ये उसकी ओर आकृष्ट हो गए। कवि कहता है कि उस रमणी का शरीर ऐसा जान पड़ता था कि मानो यह फूलों से पूर्ण कोई लता हो या फिर काले-काले बादलों से घिरी हुई श्वेत शुभ्र चाँदनी हो। यहाँ यह स्मरणीय है कि कवि ने जो ‘चंद्रिका से लिपटा घनश्याम’ कहा है उसका अर्थ यह नहीं कि वह बाला श्यामवर्ण की थी और इसलिए इसका अर्थ यह करना कि ‘कोई श्याम बादल जो कि चाँदनी से लिपटा हुआ हो’ उचित नहीं है। वस्तुत: कवि यह कहना चाहता है कि वह रमणी नीला परिधान धारण किए हुए थी और इसलिए यहाँ नीले वस्त्र की उपमा मेघ से तथा उसके गौर-वर्ण की उपमा चाँदनी से दी गई है।

    कवि कह रहा है कि रमणी का बाह्य तन उसके हृदय की ही अनुकृति था अर्थात् उसका शरीर बाहर से जितना मनोहर जान पड़ता था उतना ही उसका हृदय भी उदारता से ओतप्रोत था। कवि का कहना है कि यदि उस रमणी का शरीर लंबा एवं कोमल था तो हृदय भी विशाल और सुकुमार ही था अर्थात् उसका बाह्य तन और अंतर्मन दोनों ही सरल एवम् संकीर्णता रहित थे। कवि कह रहा है कि जिस प्रकार कोई लघु शाल वृक्ष सुंदर सुरभि युक्त पवन के झोकों से हिलारें-सी लेता हमेशा प्रिय लगता है उसी प्रकार उस बाला के शरीर से भी अत्यंत भीनी-भीनी गंध रही थी। वह लावण्यता की प्रतिमा सहज-सी प्रिय जान पड़ती थी। कवि ने इन पंक्तियों में उस रमणी को अपूर्व रूपवती कहा है और ‘मधुपवन क्रीडित’ कहने से संभवत: उसका अभिप्राय यही है कि उस रमणी के शरीर से समुधुर वायु अठखेलियाँ सी कर रही है। साथ ही यह भी कह सकते हैं कि उसके हृदय में मधुर भावनाएँ विद्यमान थी और वह अनेक उत्तम गुणों से पूर्ण भी जान पड़ती थी।

    कवि का कहना है कि उस नारी का कोमल सुंदर शरीर गांधार देश के चिकने नीले रोम वाले भेड़ो के चमड़े से आच्छादित था अर्थात् युवती ने जो वस्त्र अपने शरीर पर धारण किया था वह गांधार देश की नीले रोयें वाली भेड़ों के चिकने चमड़े से बना था। इस प्रकार वह वस्त्र उसके सुंदर शरीर पर सुकोमल आवरण के समान था।

    कवि मनु से प्रश्न करने वाली आगंतुक रमणी (श्रद्धा) का रूप वर्णन करते हुए कह रहा है कि उस रमणी के नीले वस्त्र में से उसका सुकुमार एवं सुंदर शरीर कहीं खुला हुआ था अर्थात् परिधान युक्त स्थानों के अतिरिक्त उसके शरीर के अन्य अंग खुले हुए थे और वे ऐसे जान पड़ते थे कि मिनो काले बादलों रूपी वन में गुलाबी रंग के बिजली के फूल खिले हुए हों। इन पंक्तियों में कवि ने नीले परिधान के लिए बादलों और रमणी के अधखुले अंगों के लिए बिजली के फूल नामक उपमाओं का प्रयोग कर यह स्पष्ट करना चाहा कि उसका शरीर अपूर्व सौंदर्यशाली या और उसका वर्ण गुलाबी रंग का था।

    कवि अब उस बाला के मुख का वर्णन करते हुए कहता है कि उसका मुख इतना अधिक सुंदर था कि उसका वर्णन करना सहज नहीं है। इस प्रकार कवि प्रारंभ में ही यह स्वीकार कर लेता है कि उस रमणी अर्थात् श्रद्धा के मुख की तुलना किसी भी पदार्थ से नहीं की जा सकती और उसकी सुंदरता अवर्णनीय है। कवि कह रहा है कि उस रमणी के मुख की शोभा वैसी ही थी जैसी की संध्या के समय आकाश के पश्चिमी भाग में काले-काले बादलों से घिरे हुए लाल सूर्यमंडल की रहती है।

    कवि श्रद्धा के मुख का वर्णन करते हुए कहता है कि जिस प्रकार नवीन नीलम के छोटे से पहाड़ की चोटी पर वसंत की रात में ज्वालामुखी की लपटें अंदर ही अंदर धधकती रहती हैं उसी प्रकार उसका मुख भी शोभायमान है। चूँकि आगंतुक रमणी अभी युवा ही थी और नीला परिधान पहने हुए थी अत: कवि ने यहाँ लघु आकार के नीलम की कल्पना की है। यहाँ यह स्मरणीय है कि पुराने नीलम में धब्बे पड़ जाते हैं और वह उतना आकर्षक नहीं जान पड़ता इसलिए कवि ने यहाँ ‘नव इंद्रनील’ शब्द का प्रयोग किया है। साथ ही यह उस रमणी की यौवनावस्था ही है अत: उसे वसंत की रात्रि में धधकता हुआ ज्वालामुखी कहा गया है और उसकी मुख कांति को ज्वालामुखी की लपटें माना गया है परंतु पूर्णानुराग की भावना से रहित होने के कारण उसके अंतर के ज्वालामुखी को उचित माना गया है।

    कवि का कहना है कि उस नवयुवती के मुखड़े पर घुँघराले बाल इस प्रकार बिखरे हुए थे कि मानो काले बादलों के सुकुमार शिशु ही चंद्रमा के समीप पीयूष पान करने के लिए पहुँच गए हों। कवि यहाँ घुँघराले बालों की उपमा बादलों के छोटे-छोटे सुकुमार बच्चों से दे रहा है तथा मुख को चंद्रमा मानता है। इस प्रकार उसकी दृष्टि में जिस तरह काले-काले बादल चंद्रमा के समीप एकत्र हो जाते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वे उसका सुधा रस पान करना चाहते हो उसी प्रकार उस बाला के कंधे तक लटकने वाले घुँघराले केशों को देखकर यही आभास होता था कि मानो वे भी उसके चंद्रमा सदृश्य मुख का पीयूष पान करने के लिए एकत्र हुए हों।

    कवि कह रहा है कि उस नवयौवना के मुख पर मंद-मंद हँसी को देख यही अनुमान होता था कि संभवत: प्रभातकालीन बालारूण अर्थात् बाल रवि की कोई आभायुक्त किरण ही किसी लाल कोपल पर विश्राम करती हुई वहीं टिक गई है और इस दशा में यह अत्यंत सुंदर जान पड़ती है।

    कवि उस आगंतुक रमणी का रूपवर्णन करते हुए कह रहा है कि उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो संपूर्ण सृष्टि की करुण भावना ने ही एकत्र होकर शरीर धारण कर लिया हो अर्थात् वह बाला अनंत करुणामयी ही जान पड़ती थी। साथ ही उसका यह यौवन शाश्वत ही है अर्थात् हमेशा बना रहने वाला है और उसकी देह द्युति जिस तरह आज आभायुक्त है उसी तरह हमेशा ऐसी बनी रहेगी तथा उसके शरीर की शोभा कभी भी कम होगी। कवि के कहने का अभिप्राय यह है कि वह बाला केवल अपूर्व सुंदरी है अपितु करुणामयी भी है और उसके इस लौकिक सौंदर्य को देखते ही मन इस प्रकार उसकी ओर आकृष्ट हो उठता है कि स्वाभाविक ही उसे स्पर्श करने की आकांक्षा होने लगती है। इतना ही नहीं वह इतनी सुंदर थी कि जड़ पदार्थों में भी स्फूर्ति जागृत करने की अर्थात् चेतना उत्पन्न करने की शक्ति रखती थी।

    कवि का कहना है कि जिस प्रकार प्रभातकालीन तारे की अपूर्व शोभा युक्त अकशय्या से मधुरिमा में ओत-प्रोत उल्लास पूर्ण अपूर्व मादकता भरी और लज्जायुक्त उषा की पहली सुनहली किरण उठती है उसी प्रकार उस बाला के सुंदर मुख पर हल्की-सी मुस्कराहट छा रही थी। कवि ने यहाँ प्रियतम की गोद में रात्रि भर सोने के पश्चात् प्रभातकाल में उठने वाली किसी नारी की कल्पना की है और उसका कहना है कि उस नारी के मुख पर जो हर्ष, मादकता एवं लज्जा दीख पड़ती है वही उस बाला के मुख पर भी दिखाई देती थी।

    कवि कह रहा है कि वह सुकुमार नारी इतनी सुंदर जान पड़ती थी कि मानो फूलों की वाटिका में मंद पवन के झकोरो से प्ररित हो मकरंद का आधार लिए हुए फूलों के इस अर्थात् पराग के कणों का समूह ही साक्षात् देह धारण कर शोभायमान प्रतीत हो रहा हो और उन कणों पर मन को रुचिकर प्रतीत होने वाली सुंदर स्वच्छ नव बसंत की पूर्ण चाँदनी रात का प्रकाश पड़ रहा हो। इतना ही नहीं उस बाला के सुंदर मुखड़े पर रम्य क्रीड़ायुक्त अर्थात् मधुरता से ओत-प्रोत मंद-मंद उठने वाली मुस्कराहट की स्वाभाविक झलक भी दीख पड़ती थी।

    कवि कह रहा है कि उस आगंतुक अर्थात् श्रद्धा की बातें सुनकर मनु ने उससे कहा कि इस आकाश और पृथ्वी के मध्य उनका जीवन एक रहस्य बनकर रह गया है अर्थात् वे इस प्रकार अनगिनती उलझनों से घिरे हैं कि उन्हें यही नहीं समझ में आता कि इन उलझनों को कैसे सुलझाया जाए। मनु का कहना है कि जिस प्रकार अंतरिक्ष से टूटा हुआ तारा जलते-जलते शून्य में असहाय-सा हो इधर-उधर भटकता फिरता है उसी प्रकार उन्हें भी अब व्यथा रूपी जलन को लेकर इस निर्जन प्रदेश में बिना किसी सहारे के इधर-उधर भटकना पड़ रहा है।

    मनु कह रहे हैं कि उनका जीवन तो अब एक प्रकार से पाखंड मात्र ही रह गया है अर्थात् उसमें किसी भी प्रकार की वास्तविकता या गति के चिन्ह नहीं रहे तथा उन्हें यह जीवन बिल्कुल व्यर्थ बिताना पड़ रहा है। इस प्रकार मनु का यही कहना है कि जिस प्रकार पर्वत के अस्तित्व की सार्थकता झरनों के रूप में प्रवाहित होने में ही है अन्यथा वह तो जड़ ही कहा जाता है उसी प्रकार मेरा जीवन भी उसी पर्वत खंड के समान ही है कारण कि उससे अभी तक किसी भी प्रकार का स्त्रोत निर्झरित नहीं हो सका। इतना ही नहीं मनु अपने जीवन को उस हिमखंड जैसा मानते हैं जो कि सरिता बनकर सागर में नहीं मिल सका।

    मनु उस आगंतुक अर्थात् श्रद्धा से कह रहे हैं कि मेरा जीवन तो पहेली के समान उलझा हुआ है और मैं उसे भरसक प्रयत्न करके भी सुलझा नहीं पाता और यह भी समझ में नहीं आता कि आख़िर उसका क्या कारण है? मनु का कहना है कि इस प्रकार मैं बिना सोचे समझे अनजान-सा बनकर अपना जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।

    मनु कहते हैं कि मैं दिन-रात अपने कोमल अभिलाषाओं से पूर्ण विगत युग को भुलाने का प्रयत्न कर रहा हूँ क्योंकि मुझे अब वैसा उल्लास और आनंद शायद ही मिल सके। मनु का कहना है कि मैं तो यही चाहता हूँ कि जिस प्रकार घोर अंधकारपूर्ण गुफा में संगीत की मधुर स्वर लहरी दूर तक गूँजकर नही रह जाती है उसी प्रकार अब उनके व्यथापूर्ण जीवन की सभी सुखद कल्पनाएँ शनै शनै निराशा रूपी अंधकार में मिटती-सी जा रही हैं।

    मनु कह रहे हैं कि चारों ओर निरुद्देश्य भटकने के कारण मैं यह भी नहीं कह पाता कि आख़िर में स्वयं क्या हूँ क्योंकि मुझे अपने जीवन में सार्थकता के कुछ भी अंश नहीं दीख पड़ते। मनु का कहना है कि मुझे तो यही जान पड़ता है कि मानो मैं नीले आकाश के रिक्त स्थानों से भटकी हुई वायु की एक तरंग के समान हूँ और मेरा जीवन उस उजड़े हुए राज्य की भाँति है जिसमें शून्यता-सी व्याप्त है।

    मनुष्य अपने जीवन को जड़ता से पूर्ण विस्मृतियों का स्तंभ भी कहते हैं और उन्हें वह ज्योति की धुँधली-सी छाया जैसा लगता है। इसका अर्थ यह है कि मनु अपने आपको कीर्तिमान देवजाति का क्षुद्र वंशज ही समझते हैं और वे रह-रह कर यही सोचते हैं कि सफलता प्राप्त करने में जाने अभी कितना समय और लगे क्योंकि उन्हें चारों ओर विलंब ही बिलंब देखना पड़ रहा है।

    कवि कह रहा है कि आगंतुक को अपने दयनीय एवं अभावग्रस्त जीवन से परिचित कराने के पश्चात् मनु ने यह जानना चाहा कि आख़िर वह रमणी कौन है? इस प्रकार मनु आगंतुक से कहते हैं कि वे तो अपने जीवन को पतझड़ के समान मानते हैं और उस नारी को वसंत का दूत समझते हैं तथा यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि उन्हें उसकी बातें सुनकर यह आशा हो चली है कि उसके जीवन से शीघ्र ही सरसता और मधुरता का आगमन होगा। मनु उस आगंतुक से कह रहे हैं कि उनके जीवन में वसंत के समान उल्लासमय वातावरण प्रस्तुत करने की आशा उत्पन्न करने वाले तुम कौन हो?

    मनु कहते हैं कि जैसे सघन अंधकार में विद्युत की क्षीण रेखा चमक उठती है वैसे ही आज उनके निराशारूपी अंधकारपूर्ण जीवन में वह आगंतुक आशा की सुनहली किरण के समान जान पड़ता है और उसे देखकर उन्हें वैसी ही शांति प्राप्त होती है जैसी ग्रीष्म ऋतु में शीतल मंद पवन के प्रवाहित होने से मानव मात्र को प्राप्त होती है। इतना ही नहीं मनु उस आगंतुक को अंधकार में नक्षत्र की किरण के समान मानते हैं अर्थात् उनकी दृष्टि में वह रमणी उनके नैराश्यपूर्ण हृदय में आशा की किरण के समान है। इसलिए उसका आगमन होते ही उनके मानस प्रदेश की समस्त हलचल शांत हो गई है और उन्हें वैसी ही अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त हो रहा है जैसा कि किसी कोमल भावनाओं वाले कवि को दिव्य मनोहर कल्पना के उदय होने पर प्राप्त होता है।

    कवि का कहना है कि मनु के उद्गारों को सुनने के पश्चात् वह आगंतुक व्यक्ति, उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिए अपनी मधुर वाणी से अपना परिचय उसी प्रकार देने लगा जिस प्रकार कोयल प्रसन्न होकर फूल को वसंतागमन की सूचना देती है। वस्तुत: इन पंक्तियों से फूल और मधुमय नामक दोनों ही शब्द श्लिष्ट हैं तथा सुमन का अर्थ फूल के साथ-साथ सुंदर मनवाला और मधुमय का अर्थ वसंतमय एवं मधुर दोनों ही माना जाना चाहिए। इस दूसरे अर्थ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उस आगंतुक ने सुंदर मन वाले मनु को भावी जीवन की मधुर आशा बँधाई।

    वह आगंतुक रमणी अपना परिचय देते हुए कह रही है कि मैं अपने पिता को अत्यंत प्यारी संतान हूँ और मेरे मन से हमेशा से ललित कलाओं का ज्ञान प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा रही है। इस प्रकार मैं इधर गंधर्वों के देश में रहकर अपनी अभिलाषा पूर्ण कर ही हूँ।

    उस आगंतुक रमणी का कहना है कि स्वच्छंद प्रकृति की होने के कारण मैं इस विस्तृत उन्मुक्त आकाश के नीचे दिन-प्रतिदिन इधर-उधर घूमती रहती थी और इस प्रकार मेरी यह आदस-सी पड़ गई कि चारों ओर घूमकर प्रकृति की सुंदर छवि देखी जाय। वह बाला कहती है कि इस प्रकार प्रकृति के विभिन्न दृश्यों की मनोहर सुषमा को देख, आश्चर्यकित हो मैं अपने हृदय से उठने वाले रहस्यों को सुलझाने की चेष्टा करती और हमेशा यह जानने को उत्सुक रहती कि आख़िर इन सुंदर वस्तुओं में विद्यमान सत्य क्या है?

    वह आगंतुक रमणी कह रही है कि मेरा मन प्राकृतिक दृश्यों की सुषमा निहार कर रहस्य से पूर्ण हो जाता था और कुतूहल मिटाने के लिए भी वह स्वभाविक ही अधीर हो उठता था अतएव हिमालय पर्वत को देखकर ही कभी-कभी मैं यह सोचने लगती कि आख़िर धरती के हृदय में ऐसी कौन-सी पीड़ा है या उसे कौन-सा कष्ट है कि इसके कारण उसके मस्तक पर चिंता की सिकुड़न पड़ गई है। यहाँ यह स्मरणीय है कि जब कोई भी प्राणी किसी व्यथा से पीड़ित होता है और उसके मन में चिंताएँ-सी उठने लगती है उस समय स्वाभाविक ही उसके मस्तक पर सिकुड़न-सी जाती है। अत: इन पंक्तियों में वह बाला हिमालय को धरती के ललाट की सिकुड़न ही मानती है और उसका अनुमान है कि कदाचित् किसी आंतरिक व्यथा के कारण पृथ्वी के मस्तक पर सिकुड़न-सी पड़ गई है और यही सिकुड़न हिमालय के रूप में दीख पड़ती है।

    वह आगंतुक बाला कहती है कि हिमालय पर्वत के मौन सौंदर्य की ओर देखने पर कभी-कभी यह भी आभास होने लगता कि उसकी इस नीरव सुषमा में कोई कोई महान और गुप्त संदेश अवश्य है। इस प्रकार मेरे मन में यह जानने की इच्छा बलवती हो उठी कि आख़िर वह संदेश क्या है।

    उस रमणी का कहना हे कि ज्यों ही मेरे मन में हिमालय के मौन सौंदर्य में विद्यमान गुप्त संदेश को जानने की उत्सुक्ता जागृत हुई त्यों ही मेरे चरण भी आगे बढ़ चले। इस प्रकार रमणीय पर्वत शृंखलाओं में अनेक मनोहर दृश्यों को देख मेरे नेत्रों की प्यास बुझ गई और मैं इसी निष्कर्ष में पहुँची कि यह पर्वत ऊपर वैभवशाली है तथा उनकी साज-सज्जा भी मनोहरिणी है।

    उस बाला ने मनु से पुन: कहा कि एक दिन अचानक इसी हिमालय पर्वत के नीचे अपार सागर अपने पूरे वेग से उमट उठा और वह गरजता हुआ पर्वत की तलहटी से टकराने लगा। वस्तत: इन पंक्तियों में उस रमणी ने भीषण जल प्रलय की ओर संकेत किया है और उसका कहना है कि एक दिन हिमालय पर्वत के चारों ओर जल ही जल दीख पड़ने लगा तथा उसी समय से मैं नित्प्राय-सी हो इधर-उधर अकेली निश्चिंत घूम रही हूँ।

    वह आगंतुक रमणी मनु से कह रही है कि अकेले घूमते-घूमते मैं इस ओर निकल आई और मैंने जब यहाँ पास में ही यज्ञ से बचा हुआ कुछ अन्न देखा तब मुझे यह अनुमान-सा होने लगा कि प्राणियों के हित साधन में तत्पर कोई कोई प्राणी अवश्य जीवित है। इस प्रकार मुझे यह विश्वास हो गया कि जल प्रलय के पश्चात् मेरे समान कोई दूसरा प्राणी भी जीवित बच रहा है अन्यथा यह अन्न यहाँ दिखाई देता।

    वह बाला मनु को संबोधित कर कहती है कि हे तपस्वी! तुम क्यों इतने दु:खी और निराश जान पड़ते हो तथा तुम्हें इतनी अधिक व्यथा क्यों हो रही है। उसे मुनु को इतना अधिक निराश देखकर आश्चर्य होता है और वह उनसे पूछती है कि तुम्हारी इस अशांति का कारण क्या है?

    वह आगंतुक रमणी मनु से कह रही है कि क्या अब तुम्हारे हृदय में और अधिक दिन जीवित रहने की चाह तथा जीवन के प्रति कुछ भी मोह नहीं रहा जो तुम इस प्रकार निराश से बैठे हो? कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम्हारे हृदय की विराग भावना ही सुंदर आकर्षक रूप धारण कर तुम्हें धोखा दे रही है अर्थात् तुम्हें जीवन से एकाएक विरक्त बना रही है और कहीं तुम अनुराग के अभाव में विविश होकर त्याग की ओर तो उन्मुख नहीं हो गए। उस रमणी का कहना है कि यदि वास्तव में यही कारण है तो फिर तुम्हें पर्याप्त सावधानी रखनी चाहिए और इन अनुमानित प्रवादो को भुलाकर जीवन से पुन: अनुराग करना चाहिए अन्यथा हो सकता है कि तुम हमेशा के लिए जीवन के वास्तविक सुखों से वंचित हो जाओ।

    वह आगंतुक रमणी मनु को संबोधित कर कहती है कि कहीं तुम पहले से ही अज्ञात उलझनों का अनुमान कर उनसे उत्पन्न होने वाले दु:खों की कल्पना मात्र से ही तो घबड़ा कर कर्मक्षेत्र से विमुख नहीं हो गए। इसका अभिप्राय यह है कि बहुत मनुष्य स्वंय ही अज्ञात कल्पनाओं के भय से डर कर जीवन से प्रगति करना छोड़कर पलायन की प्रवृत्ति धारण करते हैं और कभी भी प्रगति नहीं कर पाते। वस्तुत: भय तो मन की अनुभूति ही हे और अज्ञात भय की कल्पना से ही कभी-कभी बहुत से लोग साहस खो बैठते हैं अत: वह बाला मनु को स्वाभाविक ही यह प्रेरणा देना चाहती है कि वे व्यर्थ ही घबड़ाएँ और जीवन से प्रेम करना सीखें। इसलिए वह कहती है कि कहीं इस भय से कि जीवन दु:खमय हो, वे अज्ञात उलझनों की कल्पना कर कर्मक्षेत्र से पीछे तो नहीं हट रहे हैं। उनका कहना है कि वे यह क्यों भूल जाते हैं कि कल्पनाओं में वास्तविकता नहीं रहती और हम जो भी अनुमान करते हैं वह कभी भी पूर्ण सत्य नहीं होता अत: यह भी संभव है कि आज जिस भविष्य की कल्पना से हम भयभीत हो रहे हों वह उससे सर्वथा भिन्न हो और हम केवल आशंकाओं से ही भयभीत हो रहे हों।

    वह बाला कह रही है कि यह सृष्टि जो कि अत्यंत सुंदर एवं आकर्षक प्रतीत होती है और जिसमें सभी अनुरक्त हैं, वास्तव में चेतन ब्रह्म अर्थात् परमात्मा की लीला का ही व्यक्त रूप है। अतएव जब ईश्वर स्वंय ही कर्म में लीन है तब उसके द्वारा निर्मित मानव का कर्म से विमुख होना अनुचित ही है। यहाँ सह स्मरणीय है कि सृष्टि निर्माण के संबंध में यह मत प्रचलित है कि जब परमात्मा एकाकीपन के भार से ऊब गया तब उसकी इच्छा एक से अनेक हो जाने की हुई और इसी अभिलाषा से उसने अपनी माया शक्ति से इस संसार को रच दिया। इसलिए यह अनुमान किया जा सकता है कि परमात्मा की आनंदपूर्ण लीला से ही सृष्टि निर्माण होने के कारण यह संसार अत्यधिक सुंदर और आकर्षक प्रतीत होता है। यही कारण है कि आगंतुक रमणी भी मनु को यह प्रेरणा देती है कि मानव मात्र को कर्म में रत रहने पर ही सच्चा सुख मिल सकता है।

    वह बाला मनु से कह रही है कि जब हम इस सृष्टि की उत्पत्ति पर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उसकी उत्पत्ति काम अर्थात् इच्छा से हुई है और यह उसका ही परिणाम है। इस प्रकार कवि ने श्रद्धा द्वारा सृष्टि के निर्माण को ही सर्वोपरि सिद्ध किया है और वास्तव में जब मनुष्य को किसी वस्तु की आकांक्षा होती है तभी वह कर्म में प्रवृत्त होता है। वास्तव में इस सृष्टि से भाँति-भाँति की कामनाएँ उत्पन्न होकर जगत कर्मक्षेत्र में प्रवृत्त करती हैं अन्यथा सृष्टि का विकास असंभव था। यह तो निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि शुभ कर्म करने से कल्याण होता है अत: काम का तिरस्कार करना युक्ति संगत नहीं है। इस प्रकार श्रद्धा मनु से कहती है कि तुम वैराग्य धारण कर काम अर्थात् इच्छा का तिरस्कार कर बड़ी भारी भूल कर रहे हो और इससे तुम्हारा सांसारिक जीवन असफल ही सिद्ध होता है।

    वह रमणी अर्थात् श्रद्धा मनु से कह रही है कि जिस प्रकार रात्रि के समाप्त होते ही सुखद सवेरा जाता है उसी प्रकार दु:ख के पश्चात् सुख का आगमन स्वाभाविक ही है और जैसे कि उषा का सुंदर तन अंधकार के भीगे आवरण में ढका रहता है उसी तरह दु:ख-सुख दोनों एक दूसरे से संबंधित हैं और जीवन में दु:ख स्थायी नहीं है बल्कि उसकी भी एक अवधि है। अतएव दु:ख-सुख दोनों ही जीवन में क्रमानुसार आते-जाते रहते हैं और प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह धैर्य धारण करें तथा कभी भी दु:ख में अपना साहस खो बैठे। इस प्रकार मनुष्य को यह विश्वास रखना चाहिए कि जिस प्रकार साधन अंधकार मिटते ही सुखद प्रभात की शुभ्र आभा दृष्टिगोचर होती है उसी प्रकार दु:ख रूपी परदा हटते ही सुख का नवीन संसार झलक उठता है।

    वह बाला अर्थात् श्रद्धा मनु से कह रही है कि तुम जिस दु:ख को अपने लिए अमंगल समझते हो और जिसे तुम संसार की सभी आपत्तियों का मूल समझ बैठे हो वह वास्तव में ईश्वर द्वारा ही प्रदत्त है अर्थात् ईश्वर ही हमें दु:ख-सुख दोनों प्रदान करता है। इस प्रकार यह सृष्टि तो ईश्वर को एक रहस्यपूर्ण देन ही है और यहाँ दु:ख में ही सुख समाया है तथा मनुष्य को कभी भी दु:ख में अपना साहस खोना चाहिए बल्कि साहसपूर्वक कठिनाइयों का सामना करना चाहिए।

    वह आगंतुक रमणी अर्थात् श्रद्धा मनु को समझाते हुए कहती है कि यह विशाल विश्व वैषम्य से पीड़ित होने के कारण ही स्पंदनशील है अर्थात् यदि इस जगत में इतनी अधिक विषमता होती तो फिर उसमें सुख का सर्वत्र अभाव ही हो जाता। कहने का अभिप्राय यह है कि विषमता ही इस जगत का जीवन है और उसी के कराण सुख एवं सहानुभूति की भावना इस जगत में दीख पड़ती है। वास्तव में स्वयं पीड़ा सहने पर ही मनुष्य को दूसरे का दु:ख समझ में पाता है और यह विशाल जगत आपदाओं से उत्पन्न होने वाली पीड़ा को सहन कर ही सहृदय बन सका है। इस प्रकार दु:ख ही मानव मात्र के सुख एवं उसकी उन्नति का कारण है और इसे भूमा अर्थात् परमात्मा का सुंदर दान समझकर ग्रहण करना चाहिए क्योंकि यही मानव जीवन को कोमल, उदार और विशाल बनाकर जीवन में मधुरता ला देता है तथा इसी से जीवन में क्रियाशीलता की भावना भी उत्पन्न होती है जिससे कि मनुष्य प्रगति करने में सफल हो पाता है।

    वह आगंतुक रमणी अर्थात् श्रद्धा मनु से कहती है कि यदि मानव में वैषम्यता अर्थात् उतार चढ़ाव हो तो मनुष्य स्वाभाविक ही इस एक रसता अर्थात् जीवन से ऊब उठेगा। इस प्रकार जीवन में उतार-चढ़ाव आवश्यक है क्योंकि एकरसता कभी भी प्रिय नहीं होती। श्रद्धा का कहना है कि ईश्वर भी प्राणियों को एक रस नहीं रहने देता और जो हमेशा सुख प्राप्त में लगा रहा है उसके जीवन में एक दिन वह भी आता है जबकि उसके मानस में भीषण हलचल-सी मच जाती है तथा जिस प्रकार समुद्र की लहरों से हलचल मचते ही उसकी सतह में छिपी मणियाँ ऊपर आकर नीली लहरों में बिखरी जान पड़ती है उसी प्रकार सुख भी पीड़ा से छिन्न-भिन्न हो जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को समरसता की प्राप्ति होने के कारण ही सुख और दु:ख से पूर्ण विषमता के थपेड़े सहन करने पड़ते हैं।

    उस आगंतुक रमणी अर्थात् श्रद्धा के उद्गारों को सुनकर मनु ने व्यथापूर्ण वाणी ने उनसे कहा कि जिस प्रकार वायु के मधुर झकोरे मानसरोवर में एक प्रकार की हलचल-सी उत्पन्न कर देते हैं उसी प्रकार तुम्हारी इन बातों को सुनकर मेरे हृदय में उत्साह एवं आनंद के अनेक भाव उठ रहे हैं परंतु इस भीषण जल प्रलय को देखकर मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मानव जीवन अत्यंत विवशतापूर्ण है और जीवन में सफलता की आशा करना व्यर्थ ही है कारण कि उसका अंत निराशा पूर्ण ही होता है। मनु का विचार है कि सफलता प्राप्त करना तो इन धरती में कल्पना मात्र ही है और जीवन की सफलता तो कल्पित घर के समान अपयार्य जान पड़ती है।

    मनु की वाणी को सुनने के पश्चात् उस आगंतुक अर्थात् श्रद्धा ने अत्यंत स्नेह के साथ उनसे कहा कि अरे तुम तो यहाँ तक अधीर हो गए कि अपने जीवन की बाज़ी ही हार बैठे और जहाँ कि वीर पुरुष अपने प्राणों को भी उत्सर्ग कर जिस जीवन की बाज़ी को जीतने के लिए तैयार रहते हैं वहाँ उससे तुम यों ही निराश हो गए हो। इस प्रकार श्रद्धा ने यहाँ यही कहना चाहा है कि इस विश्व में वही विजयी होता है जो बिना किसी भय के अपने प्राणओं की बाज़ी लगाने के तैयार रहता हो और जो पहले से ही हताश होकर पराजय स्वीकार कर लेता है वह कभी भी कर्मवीर नहीं कहला सकता। वस्तुत: सफलता प्राप्त करने के लिए दृढ़ता अपेक्षित है और जो पहले से ही पराजय स्वीकार कर लेता है, भला वह कभी भी प्रगति कैसे कर सकता है।

    श्रद्धा मनु से कहती है कि एकमात्र तपस्या ही जीवन का सत्य नहीं है अर्थात् जगत से विरक्त हो जाना अनुचित ही है और मनुष्य को चाहिए कि इस संसार में लीन रहे। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य वह है जो उस जगत की भव-बाधाओं से भयभीत हो और हमेशा साहस के साथ प्रत्येक प्रकार की परिस्थितियों का सामन करता रहे। श्रद्धा का विचार है कि मनु में, जो दीनता से पूर्ण मानसिक शैथिल्य गया है, वह आना चाहिए था और यदि किसी प्रकार की शिथिलता भी गई तो उसके वशीभूत होना अनुचित ही है क्योंकि यह तो क्षणिक भाव है। श्रद्धा मनु से कह रही है कि तुम यह क्यों भूल जाते हो कि तुम्हारे हृदय में अनेक मधुमय आशाएँ छिपी हुई हैं और तुम्हारा हृदय अनेक मधुर आशाओं का संसार है अत: स्वयं शक्तिशाली होकर निराशा से घबड़ा उठना कदापि उचित समझा जाएगा। श्रद्धा मनु से कहती है कि तुम्हारे हृदय में तरल आकाक्षाओं से पूर्ण आशा का आल्हाद सुप्तावस्था में है अत: उसे जाग्रत कर कर्मशील बनने की प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए।

    श्रद्धा मनु से कह रही है कि यह प्रकृति भी अपना यौवन अर्थात् अपनी सुंदरता बनाए रखने के लिए उसी प्रकार हमेशा नवीन फूल धारण करती है जिस प्रकार कि युवतियाँ शृंगार कर रही हों अर्थात् प्रकृति रूपी युवती नवीन फूलों से शृंगार कर अपना यौवन अक्षुण्ण बनाए रखना चाहती है। वस्तुत: बासी या मुरझाए हुए फूल तो धूल में मिल जाने के लिए ही हैं और उनसे कभी भी शृंगार नहीं हो सकता अत: मनुष्य को भी चाहिए कि वह अपने हृदय में आलस्य और निराशा की भावनाएँ उठने दे क्योंकि वे तो जीवन के अनुपयोगी तत्व ही हैं तथा उनके कारण मनुष्य कभी भी प्रगति नहीं कर सकता। इस प्रकार मुरझाए फूल जिस प्रकार धूल में मिलकर नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार मनुष्य को भी अपने हृदय में निराशा को स्थान देना चाहिए।

    श्रद्धा का कहना है कि प्रकृति कभी भी प्राचीनता के इस आवरण को क्षण भर के लिए भी सहन नहीं कर सकती और अनुपयोगी तत्वों को तो वह नष्ट ही कर देती है। वास्तव में परिवर्तन का अर्थ ही नवीनता है और उसका आगमन अनुपयोगी या असामयिक तत्वों को नष्ट करने के लिए होता है तथा इस विनाश के पश्चात् जिन नवीन तत्वों की उत्पत्ति होती है उन्हें ही परिवर्तन कहा जाता है। इस प्रकार परिवर्तन आनंद का ही सूचक है और बिना परिवर्तन आनंद प्राप्ति भी असंभव ही है।

    वस्तुत: जिस प्रकार एक यात्री एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर अपने पैर रखते हुए आगे बढ़ता चला जाता है उसी प्रकार यह सृष्टि भी युगों की चट्टानों पर अपने पद चिन्हों की छाप छोड़ती हुई आगे बढ़ रही है और उसका विकास ही हो रहा है। कहने का अभिप्राय यह कि युग पर युग बीतते चले जाते हैं पर सृष्टि के विकास की गति अवरुद्ध नहीं होती अर्थात् विश्व की सभी वस्तुएँ नाशवान हैं तथा एक जाति के नष्ट होने के पश्चात् दूसरी जाति अवश्य उत्पन्न होती है और जब वह नष्ट हो जाती है तब दूसरी जाति पैदा होती है। इस प्रकार सृष्टि का विकास निरंतर होता रहता है और प्रकृति हमेशा विकासशील ही रही है। इश प्रकार यह जगत परिवर्तनशील ही है और हमें कभी भी दु:खों से घबड़ा कर विचलित होना चाहिए।

    श्रद्धा ने मनु से कहा कि एक ओर तो तुम हो जिसने जीवन से निराश होकर इस प्रकार मन मानकर बैठने का निश्चय किया है और दूसरी ओर यह विशाल पृथ्वी है जो कि विपुल प्राकृतिक ऐश्वर्य से पूर्ण है। यहाँ यह स्मरणीय है कि परंपरा से यह धारणा चली रही है कि मनुष्य पूर्व जन्म में जिस प्रकार के शुभ अथवा अशुभ क्रम करता है उसी प्रकार के परिणाम भी उसे दूसरे जन्म में सहन करने पड़ते हैं और फिर उस दूसरे जन्म में वह जैसे कर्म करता है वैसे ही परिणाम उसे अगले जन्म से भी सहने पड़ते हैं। इसी नियम के अनुसार चेतन प्राणी जड़ प्रकृति का आनंद ले पाता है और यही कारण है कि इस संसार में कहीं तो प्राणी कर्मों का आनंद ले पाते हैं और कहीं वे कर्म किए जा रहे हैं परंतु इतने पर भी उन्हें आशातीत सफलता प्राप्त नहीं होती लेकिन वे कर्म से पीछे नहीं हटते।

    श्रद्धा मनु से कहती है कि तुमने जो एकाकी जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया है वह अत्यंत तुच्छ विचार है और वह केवल सृष्टि के नियमों के प्रतिकूल है अपितु मान्यता के अनुकूल नहीं है। वास्तव में कोई भी प्राणी अकेले कोई भी कार्य नहीं कर सकता अत: मनु भी एकाकी रहकर बिना किसी दूसरे की सहायता लिए जीवन यज्ञ करने में असमर्थ ही रहेंगे और उनका आकर्षणहीन एकाकी जीवन आत्म-विस्तार की संभावनाएँ भी दूर कर देगा अर्थात् वे अपनी आत्मा का विकास भी कर पाएँगे।

    श्रद्धा ने मनु से कहा कि ओर तो तुम्हें स्वयं ही अपने दु:ख का बोझ उठाना पड़ रहा है और दूसरी ओर तुम किसी का सहारा भी नहीं ले रहे हो अत: तुम्हारी इस दशा को देखते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि तुम्हारे कार्यों में हाथ बँटाने वाला कोई साथी तुम्हारे पास अवश्य हो जिससे तुम्हें अपना जीवन भार स्वरूप जान पड़े। श्रद्धा पुन: मनु से कहती है कि सब बातों को सोचने विचारने के पश्चात् मैंने यह निश्चय किया है कि बिना किसी विलंब के तुम्हें अपना सहयोग प्रदान कर अपने कर्तव्य का पालन करूँ। उसका कहना है कि मुझे तुम्हारा साथी बनकर अपने आपकी उऋण ही कर लेना चाहिए क्योंकि वही मेरा धर्म है।

    श्रद्धा मनु को संबोधित कर कहती है कि मैंने यह निश्चय कर लिया है कि बिना किसी विलंब के तुम्हें अपना सहयोग प्रदान कर अपने कर्तव्य का पालन करूँ अत: मैं अब तुम्हारी सेवा में लगी रहूँगी। श्रद्धा का कहना है कि आत्म-समर्पण ही समस्त सेवाओं का सार है अर्थात् सबसे बड़ी सेवा है इसलिए मैं आज बिल्कुल निस्वार्थ भावना से तुम्हारे चरणों में अपना जीवन अर्पित कर रही हूँ और मेरा यह आत्म-समर्पण दु:खपूर्ण जगती में पड़ी हुई तुम्हारी जीवन नौका को पार लगाने के लिए पतवार के समान सिद्ध होगा।

    श्रद्धा मनु से कह रही है कि तुम मेरे हृदय की दया, माया, ममता, माधुर्य और अगाध विश्वास के अधिकारी हो अत: इनमें से जिसे भी चाहो स्वेच्छा से ग्रहण कर सकते हो तथा तुम्हारे लिए इसमें कुछ भी रुकावट नहीं होगी। श्रद्धा का कहना है कि मेरा हृदय तो स्वच्छ भाव रत्नों का ख़ज़ाना है अर्थात् उसमें असंख्य निर्मल भावनाएँ हैं और वे सब तुम्हारे लिए ही हैं अत: तुम जो भी चाहो सुगमता से प्राप्त कर सकते हो।

    श्रद्धा मनु को संबोधित कर कहती है कि मेरी अभिलाषा यह है कि तुम इस सृष्टि के मूल रहस्य अर्थात् मूलाधार बनो और भावी संस्कृति की यह लता तुम्हीं से फले-फूले अर्थात् तुम्हारे द्वारा ही सृष्टि का विकास हो। साथ ही जिस प्रकार लता के फूल वातावरण को सुरमित बनाए रखते हैं उसी प्रकार मेरी यही मनोकामना है कि फूलों की भाँति तुम्हारी सुंदर संतति के सुकार्यों से तुम्हारा यश समस्त सृष्टि में व्याप्त हो उठे।

    कवि कह रहा है कि अपने उद्गारों को व्यक्ति करते समय श्रद्धा ने मनु को कर्म क्षेत्र में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देते हुए कहा है कि तुम विधाता के इस कल्याणकारी वरदान को नहीं सुन रहे कि शक्तिशाली होकर विजयश्री प्राप्त करो! इसका अभिप्राय यह है कि ईश्वर भी यही चाहता है कि मानव प्राणी शक्तिवान होकर विजयी बने और मनुष्य हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे। श्रद्धा मनु से कहती है कि तुम्हें हमेशा यह याद रखना चाहिए कि आज समस्त सृष्टि में देवताओं की यही वाणी गूँज रही है और जब वे स्वयं देव संतान हैं तो उन्हें इस प्रकार कर्म से विमुख होकर पलायनवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

    श्रद्धा मनु से कह रही है कि जब तुम स्वयं देव पुत्र हो तो तुम्हें निडर होकर कर्म पथ पर अग्रसर होना चाहिए किसी भी प्रकार का आलस्य दिखाना या अज्ञान आशंकाओं से भयभीत होना उचित नहीं है। श्रद्धा मनु से कहती है कि तुम्हारा भविष्य अंधकारपूर्ण नहीं है बल्कि मंगलमय वृद्धि अर्थात् कल्याणकारी विधान तुम्हारे सामने है और जब तुम अपने जीवन को आकर्षण का शक्तिशाली केंद्र बनाओगे तब तुम्हारे सामने विश्व का समस्त सुख एवं वैभव खिंचता चला आएगा। इस प्रकार तुम्हें भयभीत होकर या आलस्यवश कर्तव्य क्षेत्र से विमुख होकर पलायन के प्रति प्रेम दिखाना चाहिए।

    श्रद्धा का कहना है कि जिस प्रकार जीर्ण-क्षीर्ण पुरानी वस्तुओं को गलाकर नवीन वस्तुओं का निर्माण किया जाता है उसी प्रकार देवताओं की असफलताओं के कारणों अर्थात् जिन कारणों से उनका विनाश हुआ है उस पर विचार कर इस नवीन विचारधारा के आधार पर मानव संस्कृति का निर्माण किया जा सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस मार्ग का अवलंब ग्रहण करने से देव जाति का विनाश हुआ है उस पथ से हटकर यदि मनुष्य दूसरे मार्ग को ग्रहण करे तो निस्संदेह मानव-मन की चेतना का राज्य पूर्ण हो जाएगा अर्थात् मन का संसार पूर्ण रूप से निर्मित हो सकेगा। अतएव मानव संस्कृति का विकास करते समय हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि देवताओं की असफलताओं के क्या कारण थे और क्यों वे विनाश की अवस्था को प्राप्त हुए।

    श्रद्धा का कहना है कि वास्तव में संपूर्ण मानव-भावों का जो सत्य है वही चेतना का सुंदर इतिहास है अर्थात् समस्त मानवता की संपूर्ण अनुभूतियों की सत्यता ही चेतना का इतिहास कहला सकती है लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि सृष्टि के समस्त प्राणियों के मानस पटल पर यह मानव भावों की सत्यता नित्य दिव्य अक्षरों में अंकित होती रहे और इस प्रकार चेतना का एक सुंदर इतिहास निर्मित किया जाए। कहने का अभिप्राय यह है कि विश्व के समस्त प्राणी यह बात भली भाँति समझ लें कि मनोभावनाओं को उनके प्राकृतिक रूप में ग्रहण करना ही वास्तविक जीवन है अर्थात् कभी भी किसी भी प्रकार के संकोच या भय से किसी प्राकृतिक इच्छा का दमन नहीं होना चाहिए। इस प्रकार जब मनोभावनाओं को यथार्थ रूप से ग्रहण कर उन्हें अनुकूल वातावरण में विकसित किया जाएगा तभी उनका चेतना से पूर्ण होना भी संभव है।

    श्रद्धा ने पुन: कहा कि मेरी हार्दिक अभिलाषा तो यही है कि ईश्वर द्वारा रची गई यह मंगलमयी सृष्टि इस पृथ्वी पर पूर्ण रूप से सफल हो और चाहे सभी स्थानों पर समुद्र ही दिखाई पड़े अर्थात् जल फैल जाए और सूर्य, चंद्र तारे आदि ग्रह अपने स्थानों से विचलित हो उठें तथा चाहे अनेक ज्वालामुखी पर्वत फटने लगे परंतु मनुष्य को कभी भी किसी भी प्रकार विचलित होना चाहिए। इस प्रकार भयंकर से भयंकर परिस्थितियों में भी मानव प्राणी को अविचलित रह उसे मंगलमयी सृष्टि की सत्ता को सार्थक सिद्ध करना चाहिए।

    श्रद्धा का कहना है कि जिस प्रकार हम गर्व और आनंद के साथ अपने पद तल से आग की भयंकर चिंगारी को कुचल देते हैं उसी प्रकार हमें आपदाओं को तुच्छ समझ कर उल्लासपूर्वक अपना मस्तक ऊँचा उठाए प्रगति पथ पर अग्रसर होना चाहिए जिससे कि मानवता का यश जल, थल और पवन सभी में व्याप्त हो जाए।

    श्रद्धा मनु को प्रोत्साहित करते हुए कह रही है कि समुद्र चाहे कितनी ही जलधाराओं के रूप में बहने लगे और कछुए की भाँति द्वीप समूह चाहे उनमें कितनी ही बार डूबें या बाहर आएँ लेकिन मनुष्य दृढ़तापूर्वक अपने स्थान पर डटे रहना चाहिए और मानव जाति के अभ्युदय का उपाय सोचना चाहिए। वस्तुत: मनु जल प्लावन की भयंकरता को देख हताश हो गए थे अत: स्वाभाविक ही उन्हें प्रेरणा देने के लिए श्रद्धा से उनसे कहा कि उन्हें पृथ्वी को जल मग्न देख हताश होना चाहिए क्योंकि यह जल प्लावन तो सृष्टि के नियमानुकूल ही है और इसमें परिवर्तन का नियम लागू होता है।

    श्रद्धा का कहना है कि जगत के सभी प्राणियों को अपनी कमज़ोरियों से निराश होना चाहिए बल्कि उन्हें यही समझना चाहिए कि कमज़ोरी ही शक्ति के रूप में परिणित हो उठती है और हम ज्यो-ज्यों अपनी दुर्बलता पर विजय प्राप्त करते है त्यों-त्यों हमारे हृदय में अपूर्व बल भी बढ़ता जाता है। यदि मानव जीवन में बार-बार पराजय ही मिले तो भी भयभीत या निराश होकर पलायनवादी विचारधारा को अपनाना बुद्धिमानी नहीं है बल्कि प्रसन्नतापूर्वक हृदय में शक्ति एकत्र कर प्रत्येक कठिनाई का सामना करने को तैयार रहना चाहिए और चाहे कितनी ही भयानक से भयानक परिस्थिति क्यों आए लेकिन कभी भी साहस नहीं खोना चाहिए।

    श्रद्धा कह रही है कि जिस प्रकार विद्युत्कण शून्य में इधर-उधर बिखरे पड़े रहने पर कुछ भी करने में असमर्थ रहते हैं परंतु ज्यों ही उनका एकीकरण हो जाता है त्यों ही वे सब मिलकर अगणित लोकों की सृष्टि करते हैं उसी प्रकार जब तक मनुष्य की शक्ति इधर-उधर बिखरी रहती है तब तक वह अशांत और असहाय-सा जान पड़ता। इस प्रकार मनुष्य को चाहिए कि वह बिखरी हुई शक्ति को एकत्र कर शक्ति समंवित हो जाए और ऐसा करने पर तो मानवता की विजय निर्विवाद रूप से होगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कामायनी (पृष्ठ 43)
    • संपादक : जयशंकर प्रसाद
    • रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : भारती-भंडार
    • संस्करण : 1958

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