अणुपेहा बारह वि जिय भाविवि एक्कमणेण।
रामसीहु मुणि इम भणइ सिवपुरि पाहवि जेण॥
सुण्णं ण होइ सुण्णं दीसइ सुण्णं च तिहुवणे सुण्णं।
अवहरइ पावपुण्णं सुण्णसहावेण गओ अप्पा॥
वेपंथेहिं ण गम्मइ वेमुहसूई ण सिज्जए कंथा।
विण्णि ण हुंति अयाणा इंदियसोक्खं च मोक्खं च॥
उववासह होइ पलेवणा संतविज्जइ देहु।
घरु डज्झइ इंदियतणउ मोक्खहं कारणु एहु॥
अच्छउ भोयणु ताहं घरि घरि सिद्धु हरेप्पिणु जेत्थु।
ताहं समउ जय कारियइं ता मेलियइ समतु॥
जइ लद्धउ माणिक्कडउ जोइउ पुहवि भंमंत।
बंधिज्जइ णियकप्पडइं जोइज्जइ एक्कंत॥
वादविवादा जे करहिं जाहिं ण फिट्टिय भंति।
जे रत्ता गउपावियइं ते गुप्पंत भमंति॥
कायोऽ स्तीत्यर्थमाहार कायो ज्ञानं समीहते।
ज्ञानं कर्मविनाशाय तन्नाशे परमं पदम्॥
कालहिं पवणहिं रविससिहिं चहु एक्कट्ठइं वासु।
हउं तुहिं पुच्छउं जोइया पहिले कासु विणासु॥
ससि पोखइ रवि पज्जलइ पवणु हलोले लेइ।
सत रज्जु तमु पिल्लि करि कम्महं कालु गिलेइ॥
हे जीव! रामसिंहमुनि ऐसा कहते हैं कि तू बारह अनुप्रेक्षा को एकाग्र मन से इस प्रकार सेवित कर कि तुम्हें शिवपुरी की प्राप्ति हो।
जो शून्य है वह सर्वथा शून्य नहीं है, तीन भुवन से शून्य (ख़ाली) होने से वह शून्य यानी आत्मा दिखती है परंतु स्वभाव से तो वह पूर्ण है। ऐसे शून्य-सद्भाव में प्रविष्ट आत्मा पुण्य-पाप का परिहार करती है।
अरे अजान! दो राहों में एक ही समय गमन नहीं हो सकता, दो मुख वाली सुई से कथरी नहीं सिली जाती, वैसे ही इंद्रिय सुख तथा मोक्ष-सुख—ये दोनों बातें एक साथ नहीं बनती।
उपवास से देह संतप्त होती है और उस संताप से इंद्रियों का घर दग्ध हो जाता है—यही मोक्ष का कारण है।
उस घर का भोजन रहने दो जहाँ सिद्ध का अपमान होता हो। ऐसे जीवों के घर जाने मात्र से ही सम्यक्त्व मलिन होता है।
हे योगी! पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए यदि माणिक मिल जाए तो वह अपने कपड़े में बाँध लेना और एकांत में बैठकर देखना अर्थात् संसार-भ्रमण में सम्यक्त्व रत्न को पाकर एकांत में फिर-फिर उसकी स्वानुभूति करना, लोगों का संग मत करना।
वाद-विवाद करनेवाले की भ्रांति नहीं मिटती, जो अपनी बड़ाई में तथा महापाप में अनुरक्त हैं, वे भ्रांत होकर भटकते रहते हैं।
आहार तो काया की रक्षा के लिए है, काया ज्ञान के समीक्षण के लिए है, ज्ञान कर्म के विनाश के लिए है तथा कर्म के नाश से परमपद की प्राप्ति होती है।
काल, पवन, सूर्य तथा चंद्र—इन चारों का इकट्ठा वास है। हे जोगी! मैं तुझसे पूछता हूँ कि इनमें से पहले किसका विनाश होगा?
चंद्र पोषण करता है, सूर्य प्रज्वलित करता है, पवन हिलोरें लेता है, और काल सात राजू के अंधकार को पेलकर कर्मों को खा जाता है।
- पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 44)
- संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
- रचनाकार : मुनि राम सिंह
- प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
- संस्करण : 1992
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.