सव्वहिं रायहिं छहस्सहिं पंचहिं रूवहिं चितु।
जासु ण रंजिउ भुवायलि सो जोइय करि मितु॥
तव तणुअं मि सरीस्यहं संगु करि ट्ठिउ जाहं।
ताहं वि मरणदवक्कडिय दुसहा होइ णराहं॥
देह गलंतहं सवु गवइ मइ सुइ धारण धेउ।
तहिं तेहइं वढ अवसरहिं विरला सुमरहिं देउ॥
उम्मणि थक्का जासु मणु भग्गा भूवहिं चारु।
जिम भावइ तिम संचरउ ण वि भउ ण वि संसारु॥
जीव वहंति णरयगइ अभयपदाणें सग्गु।
वे पह जवला दरिसियइं जहिं भावइ तहिं लग्गु॥
सुक्खअडा दुइ दिवहडइं पुणु दुक्खहं परिवाडि।
हियडा हउं पइं सिक्खवमि चित करिज्जहि वाडि॥
मूढा देह म रज्जियइ देह ण अप्पा होइ।
देहहं भिण्णु णाणमउ सो तुहं अप्पा जोइ॥
जेहा पाणहं झुंपडा तेहा पुतिए काउ।
तित्थु जि णिवसइ पाणिवइ तहिं करि जोइय भाउ॥
मूल छंडि जो डाल चडि कहं तह जोयाभासि।
चीरु ण वुणणहं जाइ वढ विणु उट्टियइं कपासि॥
सव्ववियप्पहं तुट्टहं चेयणभावगयाहं।
कीलइ अप्पु परेण सिहु णिम्मलझाणठियाहं॥
जिसका चित सर्व रागों में, छह रसो में व पाँच रूपों में रंजित नहीं है ऐसे योगी को हे जीव! तू इस भुवनतल में अपना मित्र बना।
जिसका तप थोड़ा भी शरीर को संग करके स्थित है, उस मनुष्य को भी मरण के दुस्सह दावानल से गुजरना पड़ता है।
जब देह गलती है तब मति-श्रुत की धारणा-ध्येय सब गलने लगता है, हे वत्स! तब उस अवसर में देव का स्मरण तो कोई विरले ही करते हैं।
जिसका पवित्र मन संसार के सुंदर पदार्थों से भाग कर, मन से पार चैतन्यस्वरूप में लग गया, वह कहीं भी संचरण करे तो भी उसे न भय है, न संसार।
जीवों के वध से नरकगति होती है और अभय प्रदान करने से स्वर्ग जाने के लिए ये दो पथ तुमको बतला दिए, अब इनमें से जो अच्छा लगे, उसमें तुम लग जाओ।
इस संसार में इंद्रिय सुख तो दो दिन के हैं, फिर तो दुखों की ही परिपाटी है, इस कारण हे हृदय! मैं तुझे सिखाता हूँ कि तेरे चित्त को तु बाड़ लगा अर्थात् मर्यादा में रख, और उसको सच्चे मार्ग में लगा।
हे मूढ। देह में नियंत्रित न हो, देह आत्मा नहीं है। देह से भिन्न ज्ञानमय आत्मा को तू देख।
अरे, यह मूर्त काया तो घास की झोपड़ी जैसी है, हे योगी! उसमे जो प्राणवत-चेतन निवास करता है, उसकी तू भावना कर।
मूल को छोड़कर जो हाल पर चढ़ना चाहता है, उसको योग-अभ्यास कैसा? हे वत्स! जैसे बिना औंटे हुए कपास में से वस्त्र नहीं बुना जाता, उसी प्रकार मूल गुण के बिना उतर गुण नहीं होते।
जिसके सर्व विकल्प छूट गए हैं और जो चेतनभाव को प्राप्त हुआ है, वह आत्मा निर्मल ध्यान में स्थित होकर परमात्मा के साथ केलि करती है।
- पुस्तक : पाहुड़ दोहे (पृष्ठ 26)
- संपादक : हरिलाल अमृतलाल मेहता
- रचनाकार : मुनि राम सिंह
- प्रकाशन : अखिल भारतीय जैन युवा फ़ेडरेशन
- संस्करण : 1992
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