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वे मंज़िल का पता नहीं जानती थीं

ve manzil ka pata nahin janti theen

चंद्रेश्वर

चंद्रेश्वर

वे मंज़िल का पता नहीं जानती थीं

चंद्रेश्वर

एक अरसे बाद दिखा

झुंड भेड़ों का

सड़कों पर

अपने गड़रियों के साथ

वे चल रही थीं

बाँस की पतली छड़ी के इशारों पर

डरी-सहमी-सकुचाई-सी

उनकी तो कोई क़तार बन पा रही थी

उनको कोई अलग राह ही सूझ रही थी

वे गिर-भहरा रही थीं एक-दूसरे पर

वे मंज़िल का पता नहीं जानती थीं

सिर्फ़ चलना जानती थीं

अब तो बहुत ही कम बचे थे

उनके लिए घास के मैदान...पलिहर खेत...

जहाँ उनको हिराया जाता रहा है

अपने-अपने पलिहर खेतों में

उनको हिरवाने के लिए आतुर-उत्सुक

खेतिहर किसान ही कितने बचे थे

जो बचे थे उनकी आँखों से

जैसे नीर नहीं

टपकता रहता मानो रक़्त

बहरहाल, भेड़ें तो भेड़ें थीं

तमाम उम्र अपनी-अपनी पीठों पर

ऊन की बेहतरीन फ़सल उगाने के बाद भी

थीं वे किसी बुरे वक़्त के हवाले

वे भेड़चाल के क़िस्सों...और मुहावरों के नाम पर

पहले से बहुत बदनाम थीं।

स्रोत :
  • रचनाकार : चंद्रेश्वर
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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