तुम्हारे मौन का मैं अर्थ क्या समझूँ
tumhare maun ka main arth kya samjhun
देवीप्रसाद 'राही'
Deviprasad 'Rahi'
तुम्हारे मौन का मैं अर्थ क्या समझूँ
tumhare maun ka main arth kya samjhun
Deviprasad 'Rahi'
देवीप्रसाद 'राही'
और अधिकदेवीप्रसाद 'राही'
तुम्हारे मौन का मैं अर्थ क्या समझूँ
कि तुम पाषाण से भी—
बढ़ गए, दो-चार डग आगे!
मगर पाषाण में भी तो
प्रगति की आग होती है,
अटल विश्वास होता है—
कहे की लाज होती है,
न हो विश्वास जाकर देख लो—
भटकी निगाहों से—
अभी तक, ताज में, मुमताज की—
आवाज़ रोती है,
हिमालय की कसम तुमको
अजंता की कसम तुमको,
कसम गिरनार की तुमको
कुतुबमीनार की तुमको,
कि जिनकी रूह से अब तक
यही आवाज़ आती है—
मनुज क्या, काल पर भी तो
कला की जीत होती है।
कि तुम इंसान होकर भी
न मेरे गीत सुन पाए,
धधकते होंठ पर मेरे
सिसकते अश्रु पर मेरे,
न तिल भर आज तक
कोई, कभी अरमान धर पाए,
इसी से यदि कहूँ कुछ तो
बुरा मत मानना मुझसे,
भला पाषाण है तुमसे—
कि जो इंसान के आड़े समय पर—
काम आ जाए,
जो रख ले लाज पूजा की—
स्वयं भगवान बन जाए,
तुम्हारे स्नेह का अब अर्थ
क्या समझूँ
कि तुम भगवान से भी बढ़ गए,
दो-चार पग आगे!
- पुस्तक : कविता सदी (पृष्ठ 362)
- संपादक : सुरेश सलिल
- रचनाकार : देवीप्रसाद 'राही'
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 2018
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