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ट्रेन के डिब्बे में एक विक्षिप्त औरत

train ke Dibbe mein ek wikshaipt aurat

ऋतुराज

ऋतुराज

ट्रेन के डिब्बे में एक विक्षिप्त औरत

ऋतुराज

और अधिकऋतुराज

     

    बाबा इतना दु:ख 
    बाबा इतना सोच 
    इतनी बेचैनी इतना दरद 

    बाबा कौतुक करो 
    कुछ तो जुगत करो 
    बाबा बचा लो 
    किरपा करो बाबा

    चलती ट्रेन में बार-बार सिर पटकने पर भी 
    उस औरत की हिचकियों में आए बाबा 
    कुछ नहीं कर रहे थे 
    न जाने कितने बरसों की बदहाली असहायता में 
    उसका पति गोद में बच्चा लिए 
    हतप्रभ बैठा था 

    कुछ-कुछ ऐसा ही ऊपरला हो जाता है 
    जिसे कई संजीदा-से कवि मित्र 
    सुविधा के वास्ते 
    अपनी आध्यात्मिक चिंता कहते हैं

     
    स्रोत :
    • पुस्तक : स्त्रीवग्ग (पृष्ठ 37)
    • रचनाकार : ऋतुराज
    • प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
    • संस्करण : 2013

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