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बिल्लियों की बेपरवाही पर आप क्या सोचते हैं!

न जाने कितनी सदियों से अब तक आदमी कुत्तों, बैलों, घोड़ों, मुर्ग़ों और अन्य जानवरों से घिरा रहा; लेकिन बिल्लियाँ इस पूरे इतिहास के ऊपर बैठकर, नीमबाज़ आँखों से धूप सेंक रही हैं।    

बिल्लियाँ चलता-धड़कता रहस्य हैं। वे रात का फ़रेब हैं। वे हाथ आएँ तो बस में नहीं आतीं और बस में आती हैं तो आप का भरम है यह। बिल्लियों की बेपरवाही पर आप क्या सोचते हैं, उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं है। बिल्लियों में अबूझ वह है जिसे रिल्के की तरह कहें तो, जिससे बस ‘हारते चले जाने में ही वैभव है।’ सभी जानवर मानव के इर्द-गिर्द अपनी ज़रूरतों के साथ मौजूद रहे। बिल्लियाँ शर्तों के साथ मौजूद रहीं। उनकी शर्तें यही कि उनकी कोई शर्त न पूछिए, सीमाएँ जानिए और उसके बाहर रहिए जब तक वह ख़ुद इन्हें तोड़कर आप तक न आ जाए।

वह एक छलाँग में गॉडफ़ादर, डॉन वीटो कॉरलियोन की गोद में चढ़ आती है। फ़्रांसिस फ़ोर्ड कोपोला के कैमरे के सामने बिल्ली की धृष्टता और मार्लन ब्रैंडो की हाज़िर दिमाग़ी आज भी प्रशंसित होती है।

बिल्लियों का प्रेम पारस्परिक नहीं है। आप उनकी मौजूदगी से केवल धन्य हो सकते हैं। उन पर बहुत से नियम नहीं चलते। जो नियम चलते हैं, उसमें उनकी ही मर्ज़ी होगी।    

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महानगरीय जीवन और बिल्लियाँ

मैं जब पहली बार महानगर आया तो निश्चित ही उसके बहुत पहले अकेलापन यहाँ आ चुका था। 'शहरी अकेलापन' या फिर 'शहरी उदासीनता' कहने से वह बात नहीं बनती जो 'अर्बन सॉलीट्यूड' या 'अर्बन अपैथी' कहने में है। सुधीश पचौरी ने कभी ‘जनसत्ता’ में लिखा था कि अँग्रेज़ी—हिंदी के लिए ‘फ़ेयर एंड लवली’ है।

ख़ैर!

महानगर में मैंने पशुओं के प्रति एक भिन्न रवैया देखा। यहाँ नाम लेना ज़रूरी है कि मैंने मुंबई से नीचे कोंकण होते हुए दक्षिण तक बिल्लियों को निर्भीक और बेफ़िक्र घूमते देखा। न कुत्ते और न ही लोग उनकी मौजूदगी से असहज थे। यही कलकत्ता में भी देखा। जब मैं दिल्ली में था, वहाँ ऐसा नहीं था। न ही अम्बाला, जबलपुर और झाँसी में ऐसा देखने मिला। शायद वह वहाँ कुछ सँभली चाप में चलती होंगी। शायद इन शहरों के प्रति मेरा पूर्वग्रह हो।

पशु वैसे तो सभी जगहों में थे। गायें, भैंस, बैल, मुर्ग़े, कुत्ते आदि घरेलू जीवन का हिस्सा रहे हैं... लेकिन वह सदैव दहलीज़ के बाहर रहे। उनकी मौजूदगी के पहलू थे और उनके प्रति लगाव भी उन पहलुओं का एक हिस्सा था। वे कभी-कभी घर के भीतर भी आते थे, लेकिन प्रसंगवश। सामाजिक जीवन में भी उनकी मौजूदगी थी। निर्मल वर्मा ‘धुंध से उठती धुन’ में कुछ लेखकों का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि किस तरह कथा से जानवर ग़ायब होते जा रहे हैं।

फिर भी, जीवन की अपनी जटिलताओं और बदलते समय ने जीने के ढंग और चुनाव को भी प्रभावित किया है और उसमें परिवार और वैयक्तिकता के कई पहलुओं में टूटन और नवाचार देखने मिलता है। पशुओं ने अब हमारी ज़िंदगी में नए ढंग से प्रवेश किया है।  

इसके उलट, मैंने बहुत से खिसियाए, झुँझलाए, चिड़चिड़े लोगों को देखा जो जीवन से बेज़ार है; नौकरी से थके हुए हैं तथा उनका विश्वास अब न मनुष्य पर रह गया है, न ही मनुष्यता पर। मनुष्य और मनुष्यता पर अपने विश्वासभंग का वह ख़ासतौर पर ज़िक्र करते हैं, क्योंकि उनका ‘सिनिसिज़्म’ भी हाशिये में अब और नहीं रहना चाहता है। वे पशु-प्रेमी हैं। उनके पशु-प्रेम के प्रति मुझे कोई शक नहीं अगर हुआ भी तो मेरे शक के ख़िलाफ़ वे लड़ सकते हैं। लेकिन इस प्रेम में उनका पशु एक अलगनी हो जाता है, जिस पर एक भारी स्वेटर जैसा उनका प्रेम टँगा हुआ रहता है। वे पशु-प्रेम को मानवीय प्रेम से प्रतिस्थापित करना चाहते हैं। घनघोर अकेलेपन और अविश्वास की इस स्थिति में पशु-प्रेम एक सुरक्षित भावनात्मक निवेश है। इसमें भी कुत्ते वे पशु हैं, जो मानवीय प्रेम को प्रतिस्थापित करने की होड़ में सबसे आगे हैं। बिल्लियों के साथ जीना दुनिया की बेरुख़ी की तरफ़ एक खिड़की खोलकर रखना है। यह ठंड की नींद में कंबल से निकाला गया वह पैर है; जिसे हो सकता है प्रेत पकड़ ले, लेकिन जिसमें ठंडक की एक सुखद-सुरक्षित अनुभव की गारंटी है।  

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सभ्यताएँ, नगरपशु और इस्तांबुल

युद्धग्रस्त इस समय में, जहाँ मनुष्यों और पशुओं दोनों की पर हो रही क्रूरता अपनी सीमाएँ लाँघ चुकी है। बिल्लियाँ, अधिकतम ज्ञात इतिहास में अपने जीवन में विशिष्ट और सुरक्षित जीवन जीती रही हैं। मिस्र और रोमन साम्राज्य में बिल्लियों का वैभव एक जानी-मानी बात है। लेकिन सभी सभ्यताएँ बिल्लियों के प्रति इस तरह उदार नहीं रहीं कि उन्हें दैवी दर्जा दे दें। भारत में ही बिल्लियों पर कोई श्रमपूर्व शोध कुछ ढूँढ़कर ला सकता है, लेकिन जनस्मृति तथा जनसंस्कृति में उनकी मौजूदगी बहुत आसानी से नहीं दिखती। श्रमपूर्ण शोध में BN Goswamy की पुस्तक The Indian Cat: Stories, Paintings, Poetry, and Proverbs का ज़िक्र ज़रूरी है। इसके अलावा इधर-उधर कुछ साहित्यिक संदर्भ हैं, लेकिन वह लेखक की प्रतिभा और विषयवस्तु के वैविध्य तथा उसके कुशल निबाह की तरह याद किए जाते हैं।

रॉबर्ट डार्नटन एक अमेरिकी इतिहासकार हैं। उन्होंने 1984 में 'The Great Cat Massacre and Other Episodes in French Cultural History' नाम की एक निबंध पुस्तक लिखी थी। यह पुस्तक कुछ (असत्यापित?) हवालों से 1730 में पेरिस में हुए एक विचित्र और क्रूर घटना की चर्चा करती है, जब प्रिंटिंग श्रमिकों ने अपने मालिकों के प्रतीक के रूप में बिल्लियों का सामूहिक हत्याएँ कीं। इस घटना की वजह श्रमिकों का असंतोष बताया जाता है, क्योंकि मालिकों की बिल्लियों को श्रमिकों से अधिक सुख प्राप्त थे। इसी तरह अल्बेयर कामू के उपन्यास ‘प्लेग’ में एक आदमी का शग़ल ही बिल्लियों पर थूकना है और यह जीवन की एब्सर्डिटी के प्रतीक की तरह दर्शाया गया है।  

कह सकते हैं कि रानी विक्टोरिया की बिल्लियों के प्रति दीवानगी ने सबसे पहले अँग्रेज़ी बुर्जुआ वर्ग में और फिर पूरे यूरोप में ‘बिल्ली-फ़ैशन’ को फैलाया।

इस्तांबुल के बाशाकशहर इलाक़े एक इब्राहिम केलओलान नामी बाशिंदे ने एरोस नाम के एक बिल्ले को तंग कर के मार दिया। इसके ख़िलाफ़ जनवरी 2024 में तुर्किये में जगह-जगह इसका विरोध प्रदर्शन हुआ। इब्राहिम को ढाई साल की जेल हुई और विदेश-यात्रा पर अनिश्चित-काल तक मनाही लगा दी गई। क़ानून पर यह निश्चित ही जनसंस्कृति का प्रभाव है, जहाँ जानवरों की मौजूदगी के पीछे एक तहज़ीबी इस्तिक़बाल है। यह तुर्किये बनाम बाक़ी दुनिया जैसा तर्क नहीं है। Gli भी रोमनकालीन जस्टिनियन-प्रथम के बनाए Hagia Sophia (अयासोफ़्या ) चर्च (संग्रहालय/अब मस्जिद) में रहने वाली एक बिल्ली थी और उसने उम्र के सोलह वर्ष उसी परिसर में ख़र्च किए। इस्तांबुल शहर के जीवन-शैली और स्थापत्य दोनों ही लाखों की तादाद में ऊँघती-सुस्ताती-फिरती इन बिल्लियों के प्रति अनुकूलित है। बहुत से घरों के बाहर उनके लिए आश्रय बने हुए हैं तथा बिल्लियों को घर, मस्जिद, हमाम, दुकानों, एयरपोर्ट, ट्रेन और ट्राम कहीं भी किसी भी वक़्त चलने-फिरने की आज़ादी है। उनका पालन और खान-पान एक शहरी दायित्व है। बिल्लियाँ इस्तांबुल की नगरपशु हैं।



किताबें और बिल्लियाँ

विचार भी शानदार जीवन-शैली के बीच एक पालतू बिल्ली की तरह बैठा है।

ज्ञानरंजन, कबाड़ख़ाना

ज्ञानरंजन अगर इस बात में बिल्ली की जगह किसी अन्य जानवर को रखते तो बात में वह ‘चोटान’ शायद न पैदा होती।

जन-कथाओं में बिल्लियाँ, दक्षिण एशियाई तथा मध्यपूर्वी साहित्यिक संस्कृति का हिस्सा रही हैं, हो सकता है अन्य भू-भाग के साहित्य में भी वह इतनी ही आम रही हों। स्लावोय ज़ीज़ेक एक दार्शनिक प्रत्यय समझाने के लिए लुइ कैरल के Alice's Adventures in Wonderland का हवाला देते हैं कि कैसे ‘चेशायर’ बिल्ली गुम जाती है, लेकिन उसकी आवाज़ और दाँत माहौल में बचे रह जाते हैं। राजकमल चौधरी पर लिखी कविता में धूमिल की ‘सफ़ेद पालतू बिल्ली / अपने पंजों के नीचे से / कुछ शब्द काढ़कर रख देती है...’ जापान से लेकर क़ाहिरा तक उपन्यासों में आई हुई बिल्लियाँ रहस्य सुनाकर चली जाती हैं। ओस्मानिया दीवान अदबियात के शायर मेआली ने बिल्लियों पर कई मर्सिये लिखे हैं। इधर कुछ दशक पूर्व मीर तक़ी मीर पर जिस तरह काम हुआ तो उनका वह सब खँगाला गया जो उन्हें ‘रोने-धोने’ के शाइर की हँसुली से मुक्त कर सके तो उसमें उनकी मसनवी ‘मोहिनी बिल्ली’ भी खोज ली गयी। यद्यपि मीर ने ‘कुत्तों’ पर भी लिखा है, इसीलिए ऊपर कही बात दुहराई जाए कि इस तरह के काम अक्सर ‘लेखक की प्रतिभा और विषयवस्तु के वैविध्य तथा उसके कुशल निबाह की तरह याद किए जाते हैं।’

बोर्हेस की एक कविता की पंक्तियों के साथ बिल्लियों पर अदबी हवाले के प्रसंग को समाप्त किया जा सकता है :

...Your haunch allows the lingering
caress of my hand. You have accepted,
since that long forgotten past,
the love of the distrustful hand.
You belong to another time. You are lord
of a place bounded like a dream.

To a Cat, Jorge Louis Borges

 

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