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ध्यान में

dhyan mein

मृगतृष्णा

मृगतृष्णा

ध्यान में

मृगतृष्णा

 

एक

प्रेम में लिखे गए ख़त
सब ईश्वरों के हरकारे हैं
उसका चाबुक
ध्यान की अश्रुपूर्ण अवस्था
प्रेम के सब चुंबन
प्रेमियों की पीठ पर खिले गुलमोहर हैं
प्रेम का घटित होना
संसार में जैसे घर का हो जाना है
फिर मृत्यु के रास्तों को स्वर्ग कहा गया
और दुःख की सबसे पकी फ़सल को प्रेम।

दो

दंतकथाएँ उड़ती थीं
कि दरिया में रहता है कोई नाग
नाग पानी में रहे और ज़हर मीठा हो जाए
मछली हवा में उछले और उसकी साँस फ़ीकी पड़ जाए
किनारों को बीच से जोड़ने के लिए
गिर चुके पेड़ पुल बनाते थे
तब झरनों के संग ब्याह रचता
और झीलों के फेरे पड़ते थे
मैं केश खोले हवा के मंत्र बींधती थी
कि प्रार्थना से प्रसन्न होते हैं देव
आराधना स्वरूप साथ नृत्य करते हैं गंधर्व
ध्यान की स्थिति में
छाती में उतर आती है सारी की सारी प्रकृति
और प्रेम में डूबने को दरिया में उतरता है आकाश।

तीन

जब हठिनी मोह के मनके गले में धारण करे
और वे जीवन के सत्य बन जाएँ
केश कबूतर से शांत हो जाएँगे और छाती चिता-सी शीतल
जब तुम अपनी दोनों आँखों से झाँक सकोगे
मेरे भीतर के तीसरे नेत्र की उपस्थिति को
तुम्हारे समक्ष बैठी मेरी प्रतीक्षाएँ
जब कट-कटकर गिरने लगेंगी
तुम चुन सकोगे उन्हें मेरे होश-ओ-हवास में रहते हुए
और जब हम संसार के ध्यान से उठ खड़े होंगे
तब भी दुनिया को ख़त्म करने से पहले
तुम्हें अंतिम बार करना होगा प्रेम।

चा

मैं अपनी प्रार्थनाओं की चिट्ठियाँ
धूप पर लिखती रही
उनको पढ़ सकने वाला कहीं आसमान में बस बैठा
धूप की नियति आसमान से बरसने की हुई
और धरती पर गिरा हुआ ईश्वर
इतना गिरा कि फिर उठ न सका।

पाँच

जैसे मृत्यु पश्चात करने होते हैं
अंतिम संस्कार
प्रेम में टूटने के बाद
कविताएँ उस प्रेम का अंतिम अधिकार हैं
और अश्रु सब प्रसंगों का अंतिम स्नान।

स्रोत :
  • रचनाकार : मृगतृष्णा
  • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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