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बाबू को ख़त

babu ko khat

अखिलेश सिंह

अखिलेश सिंह

बाबू को ख़त

अखिलेश सिंह

बाबू घूम रहा हूँ देस

बड़े बड़े लोगों का देस

बनियों पूँजीपतियों का देस

किसिम किसिम के विज्ञानियों

अकादमिकों कलाकारों का देस

ग़रीबनवाज़ों धरतीपुत्रों तारणहारों

सटोरियों दलालों राजनेताओं का देस

दानवीरों टैक्सचोरों

कई कई दिनों तक अन्न जल खाने वालों का देस

लेरूआ पुआल गुल्ली गोली

खेत सिवान और नीम की गूदी

और खोट्टल की दुनिया से निकलकर

चैंधियाते हुए देख रहा हूँ

कि तुम्हारी दुनिया और उनके देस का जंजाल

कितना अलग है

कि सबकी दुनिया और सबके जंजाल हैं

अलंकरण हैं सम्मान हैं

सबकी प्रतिस्पर्धाएँ हैं

शिखर पर पहुँचने की चाह है

कुछ कुछ तुम्हारी दुनिया की तरह

जिसमें तुम रखते हो प्रतिस्पर्धा

बड़े ही भोलेपन से

कभी तो धान के मोखे से

कभी आलू की गोलाई को लेकर

तो सबसे करिया भैंस

बड़े बड़े डिल्ल के बैल को लेकर

तुम्हारी लाठी की मूठ

यहाँ तक कि तुम्हारे खाँसने में भी

शामिल रहता है एक शिल्प

एक बहुत ही ख़ूबसूरत तराश

तुम्हें अलग करती है दूसरों से

उम्र की इस ढलान में भी

गिलहरी की भाँति चढ़ जाते हो

बहुत ही ऊँचे खुरदुरे पेड़ों पर

कि वे हमेशा पड़ जाते हैं तुमसे छोटे

गाँव के अखाड़े में तुम वर्षों अव्वल थे

आठ दस हाथ तो आज भी कूद जाओ

पलक भाँजते ही

ख़ैर...

अभी तक जो भी देख चुका हूँ

इतना घूमने के बाद देस

तो बता दूँ

और तुम बता देना

अपने प्रतिस्पर्धी संगी साथियों को

कि बड़ी रटन से गाई जाती है

किसानों की महिमा

लगाए जाते हैं उनके लिए

लाल क़िले से नारे

उनके दुख दर्द पर होती हैं ख़ूब सारी गोष्ठियाँ

जिनसे टपकता है रस

फगुआ के तुम्हारे अल्हड़ गीत-सा

और पता चलती है एक बात

बहुत सारे निष्कर्षों के बीच

कि वे लोग बने रहना चाहते हैं

तुम्हारे दुःख दर्द में

और तुम भी बने रहोगे लंबे समय तक

गोष्ठियों में

चुनावी वादों में

लंबे समय तक होते रहेंगे

तुम्हारी दशा पर चिंतन और शोधकार्य

सुधारा जाता रहेगा तुम्हारा जीवन-स्तर

लंबे समय तक।

स्रोत :
  • रचनाकार : अखिलेश सिंह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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