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स्वर्ग-सहोदर

swarg sahodar

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

स्वर्ग-सहोदर

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

     

    जितने गुण सागर नागर हैं,
    कहते यह बात उजागर हैं।
    अब यद्यपि दुर्बल, आरत है,
    पर भारत के सम भारत है॥

    बसते वसुधा पर देश कई,
    जिनकी सुषमा सविशेष नई।
    पर है किसमें गुरुता इतनी,
    भरपूर भरी इसमें जितनी॥

    गुण-गुंफित हैं इसमें इतने,
    पृथिवी पर हैं न कहीं जितने।
    किसकी इतनी महिमा वर है?
    इस पै सब विश्व निछावर है॥

    जन तीस करोड़ यहाँ गिनके—
    कर साठ करोड़ हुए जिनके।
    जग में वह कार्य मिला किसको,
    यह देश न साध सके जिसको।

    उपजे सब अन्न सदा जिसमें,
    अचला अति विस्तृत है इसमें।
    जग में जितने प्रिय द्रव्य जहाँ,
    समझो सबकी भवभूमि यहाँ॥

    प्रिय दृश्य अपार निहार नए,
    छवि वर्णन में कवि हार गए।
    उपमा इसका न कहीं पर है,
    धरणी-धर ईश धरोहर है॥

    जलवायु महा हितकारक है,
    रुज-हारक स्वास्थ्य-प्रसारक है।
    द्युतिमंत दिगंत मनोरम है,
    क्रम-षड्ऋतु का अति उत्तम है॥

    सुखकारक ऊपर श्याम घटा,
    दुखहारक भू पर शस्य-छटा।
    दिन में रवि लोक-प्रकाशक है,
    निशि में शशि ताप-विनाशक है॥

    छविमान कहीं पर खेत हरे,
    वन बाग़ कहीं फल-फूल भरे।
    गिरि तुंग कहीं मन मोह रहे,
    सब ओर जलाशय सोह रहे॥

    रतनाकर की रसना पहने,
    बहु पुष्प-समूह बने गहने।
    परिधान किए तृण-चीर हरा,
    अति सुंदर है यह दिव्य धरा॥

    बहु चंपक, कुंद, कदंब बड़े,
    वकुलादि अनंत अशोक खड़े।
    कितने न इसे वर वृक्ष मिले,
    अति चित्र-विचित्र प्रसून खिले॥

    मृदु1 , बेर, मुखप्रिय2, जंबु फले,
    कदली, शहतूत, अनार भले।
    फलराज रसाल समान कहीं,
    फल और मनोहर एक नहीं॥

    कृषि केसर की भरपूर यहाँ,
    मृग-गंध, कुसुंभ, कपूर यहाँ।
    समझो मधु का बस कोष इसे,
    रस हैं इतने उपलब्ध किसे?

    अमृतोपम अद्भुत शक्तिमयी,
    जिनकी सुगुण-श्रुति नित्य नई।
    इसमें बहु ओषधियाँ खिलतीं,
    जल में, थल में, तल में मिलतीं॥

    कृषि में इसने जग जीत लिया,
    किसने इस-सा व्यवसाय किया?
    सन, रेशम, ऊन, कपास अहो!
    उपजा इतना किस ठौर कहो?

    अवनी-उर में बहु रत्न भरे,
    कनकादिक धातु-समूह धरे।
    वह कौन पदार्थ मनोरम है,
    जिसका न यहाँ पर उद्गम है?

    कवि, पंडित, वीर उदार महा,
    प्रकटे मुनि धीर अपार यहाँ।
    लख के जिनकी गति के मग को,
    गुरुज्ञान सदा मिलता जग को॥

    बहु भांति बसे पुर-ग्राम घने,
    अब भी नभ-चुंबक धाम बने।
    सब यद्यपि जीर्ण-विशीर्ण पड़े,
    पर पूर्व-दशास्मृति-चिह्न खड़े॥

    अब भी वन में मिलके चरते,
    बहु गो-गण हैं मन को हरते।
    इन-सा उपकारक जीव नहीं,
    पय-तुल्य न पेय पदार्थ कहीं॥

    मद-मत्त कहीं गज झूम रहे,
    मुद मान कहीं मृग घूम रहे।
    शुक, चातक, कोकिल बोल रहे,
    कर नृत्य शिखी-गण डोल रहे॥

    शत पत्र कहीं पर फूल रहे,
    मधु-मुग्ध मधुव्रत भूल रहे।
    कल हंस कहीं रव हैं करते,
    जल-जीव प्रमोद भरे तरते॥

    शुचि शीतल-मंद सुगंध सनी,
    अनुकूल बयार सुदार बनी।
    हरती सब का श्रम सेवन में,
    भरती सुख है तन में, मन में॥

    जगती तल में वह देश कहाँ,
    निकले गिरि-गंध विशेष जहाँ?
    इसमें मलयाचल शोभन है,
    जिसमें घन चंदन का वन है॥

    शिर है गिरिराज अहो! इसका,
    इस भाँति महत्व कहो किसका?
    तुहिनालय यद्यपि नाम पड़ा,
    विभवालय है वह किंतु बड़ा॥

    वर विष्णुपदी बहती इसमें,
    रवि की तनया रहती इसमें।
    अघ-नाशक तीर्थ अनेक यहाँ,
    मिलती मन को चिर-शांति जहाँ॥

    क्षिति-मंडल था जब अज्ञ सभी,
    यह था अति उन्नत, सभ्य तभी।
    बहु देश समुन्नत जो अब हैं,
    शिशु शिष्य इसी गुरु के सब हैं॥

    शुचि शौर्य-कथा इतनी किसकी,
    जग-विश्रुत है जितनी इसकी?
    अमरों तक का यह मित्र रहा,
    अति दिव्य चरित्र पवित्र रहा॥

    ध्रुव धर्ममयी इसकी क्षमता,
    रखती न कहीं अपनी समता।
    गरिमा इसकी न कहाँ पर है,
    किससे न लिया इसने कर है?

    श्रुति, शास्त्र, पुराण तथा स्मृतियाँ,
    बहु अन्य सुधी-गण की कृतियाँ।
    नय-नीति-निमंत्रित तंत्र बने;
    सब ही विषयों पर ग्रंथ घने॥

    कविता, कल नाट्य सुशिल्प कला,
    इस भाँति बढ़ी किस ठौर भला?
    किस पै न रहा इसका कर है,
    किस सद्गुण का न यहाँ घर है?

    सुख मूल सनातन धर्म रहा,
    अनुकूल अलौकिक कर्म रहा।
    वर वृत्त बढ़े इतने किसके?
    नर क्या, सुर भी वश थे इसके॥

    सुख का सब साधन है इसमें,
    भरपूर भरा धन है इसमें।
    पर हा! अब योग्य रहे न हमीं,
    इससे दु:ख की जड़ आन जमीं॥

    सुन के इसकी सब पूर्व कथा,
    उठती उर में अब घोर व्यथा।
    इसमें इतना घृत-क्षीर बहा,
    जितना न कहीं पर नीर रहा॥

    अब दीन दयालु दया करिए,
    सब भाँति दरिद्र-दशा हरिए।
    भरिए फिर वैभव नित्य नया,
    चिरकाल हुआ सुख छूट गया॥

    अवलंब न और कहीं इसको,
    तजिए हरि हाय! नहीं इसको।
    खलता दु:ख दैत्य महोदर है,
    यह भारत स्वर्ग-सहोदर है॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 18)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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