सुकनी की आँखों का सूरज
sukni ki ankhon ka suraj
मिट्टी की हाँडी का पानी खौल गया जब
डाल दिया ‘नवका चावल’ सुकनी ने उसमें
और सोचने यही लगी है
साग खेसारी का जो कल से रखा हुआ है
झटपट काट उसे
लोहिया में देकर नमक ‘सिझा’ लेगी वह
और आँच गोयठे की
धीरे-धीरे लगती
क्यों न सुकनी कर ले सीधी पीठ
लेटकर यूँ ही तब तक
लेट गई है वह ‘पुआल’ पर
खर-खर की आवाज़
उसे ऐसी लगती है
जैसे हड्डी सभी देह की
टूट रही हो
यह पुआल उस खेत का है
पंद्रह साल पूर्व आज से
सुकनी का जो निजी खेत था
स्मृति के आँचल का धब्बा
साफ़ दिखाई उसे पड़ रहा—
उसका बाप ‘नेपाली’ बड़ा ‘भंगेरी’ नामी
फूँक दिया सारी ज़मीन को
फूँका करता था जैसे वह
चिलम भाँग की।
उसे याद है
जब वह भोली-भाली-सी थी
सात बरस की नन्हीं बच्ची
उसका बाप पकड़कर
उसकी नन्हीं अँगुली
ले जाता था खेत
जब कभी कटनी होती।
अगहन आता
पके धन की गंध
नशीली अधिक भाँग से भी
होती थी
नाच-नाचकर
सुकनी सारा खेत रौंदती
चुने हुए धनसीसों से फिर
अपनी श्यामल देह सजाती
नेपाली की आँखें
चमक-चमककर कहतीं—
“उपजे दे बेटी
साठी धन।
तोर बिहा करबौ
सिंघेसरथान।”
और ‘बिहा’ की मधुर कल्पना
सुकनी के बालक-मन को
पुलकित कर जाती
हँसने लगती/गाने लगती
बाँध पंजनी ‘धनसीस’ का
श्याम चरण में
नाच-नाचकर
वृद्ध नेपाली की ‘गोदी’ में
आकर/थककर वह सो जाती
लगीं चटकने कलियाँ
उसके अंग-अंग से
लगे तैरने पलकों में
मीठे सपने
गल-गल कर मटमैला
चंदा कह-कह जाता
आता है थान सिंघेसर से
कोई अपने।
पंद्रह की थी
बाप नेपाली चला गया
‘सुरलोक’ अचानक
और कल्पना के सारे
रंगीन महल भी टूट गए थे—
जिनमें एक ‘सिंघेसर थान
की मधुर कल्पना’—
भी टूटी थी,
जैसे पानी लाने में एक दिन अचानक
उसके सिर से गिर
फूटी गगरी मिट्टी की।
चार साल का
उसका छोटा भाई ‘बुधवा’
रोया करता
गाँजा पीते हुए बाप को जब न देखता,
क्योंकि उसकी माँ तो
बस उस समय मरी थी
जब बुधवा घुरकुनियाँ
देकर चलता था।
फिर—
बुधवा का लालन-पालन
सुकनी छौरी ही करती थी,
फिर भी उसके पाँव
नहीं जमते धरती पर
क्योंकि,
उसके पंख सलोने
निकल रहे थे।
पंखकटी चिड़िया जैसी वह
गिरी ज़मीन पर
जब एक बूढ़े-खूसट के संग
इस समाज ने बाँध दिया था
बाँध दिया था
जैसे जबरन
बाछी की गरदन में ‘घाँटी’।
साठी धान का खौंछा
उसको फिर क्यों मिलता
क्योंकि वह जो खेत था अपना
नेपाली से
जगतसिंघ ने
खिला-पिलाकर लिखा लिया था।
सारा खेत उड़ा वैसे ही
जैसे धुआँ उड़ा करता था
जब नेपाली चिलम फूँकता।
थान सिंघेसर के बदले वह
दुल्हन बन पैदल ही पहुँची
‘वरुणा थान’
खौंछा में ‘कौनी मरुआ’
दिया गया था,
सोच रही थी
जहाँ पड़ेगा साठी धान।
फिर, ठंडी देह को
लगा-लगाकर गर्म देह से
सुकनी दिन-दिन ठंडी
होती चली गई थी।
उड़ते रहे स्वप्न आँखों से
ज़िंदा मरती चली गई थी।
वृद्ध पति की मौत/बुधवा का भिखारी बनना/
और लौटकर आना अपना गाँव सिंघियान/
सुकनी के जीवन की है सहज कहानी/
काट-पीटकर खाती है और सो जाती है/
बुधवा भाई ही है अब
एक बची निशानी।
कई दिनों से सोच रही है
सुकनी अगर पकड़ ले ‘लगना’
और चला ले ‘हल’
अपने उस निजी खेत में
जिसमें बनकर खेत की रानी
बचपन में वह नाच चुकी है,
मालकियत का लाल रंग का ताजा पर्चा
भवानीपुर का बी.डी.ओ.
उसको दे ही देगा
क्योंकि,
‘कारू कामरेड’ और ‘बदवा कमनिस’
भी कहते हैं—
“रे बुधवा, तैयार हुओ
तुम्हरा खेत दिलाकर ही
हम सब दम लेंगे,
आगे आओ/झँडा थाम्हो
चलो ‘पुरैनियाँ’ की ‘मीटिन’ में
तेरे खेत में ‘ललका झँडा
फहरा देंगे”।
“ग़रीब किसान, मज़दूर साथियो,
सुन लो कहना—
बहुत जल्द पुरुब दिशा में
लाल सुरुज उग आएगा
‘जो हमसे टकराएगा, वह चूर-चूर हो जाएगा’—
यह है भाषण बदवा का
जो रोज़ सबेरे गला फाड़कर चिल्लाता है—
‘ज़ोर ज़ुलुम अब नहीं चलेगा’ आदि-आदि...
सुनकर भाषण
सुकनी एक दिन रोकर बोली—
“हो भाय कारू!
हम सबके माय-बाप तोंही छो
जगतसिंघ से हमरो खेत
वापस करवाय दा।”
गरज उठा कारू तुरंत ही—
“पाटी के सब कामरेठ तैयार हुओ!”
लाठी निकली। भाले निकले।
निकले कई तीर तलवार।
सोच-समझ फिर कारू बोला—
‘हरबड़’ करना छौ बेकार
और ‘एकांती’ में सुकनी से कहा जो उसने
सुनकर वह तो ठनक उठी थी
बूढ़े पति की मौत पे जैसे
‘लाही चूड़ियाँ चनक उठी थीं।
जगतसिंघ की कोठी पर वह न जाएगी
चाहे अपना धनखेता भी क्यों न लौटै
वह थामेगी हल का लगना औरत होकर
और लेगी वह खेत’
परंतु
जगतसिंघ के दरवज्जे पर
अपना मत्था ना टेकेगी।
और अचानक आशा की कुछ नन्हीं किरनें
सुकनी की आँखों में तैरीं—
बज रहे ढोल और ताशे हैं
‘ढोलबज्जा’ में
घर से निकाल हथियार सभी
उठ खड़े हुए हैं
ले के रहेंगे लड़कर
अपने अधिकारों को।
किसान सभा के
लाल-लाल परचम आँखों में लगे तैरने
मानो सूरज के उगने के
पहले की गहरी लाली हो।
टूट गई शृंखला सोच की
देखा, आँच चूल्हे की ठंडी और हो गई,
बुझने देगी आँच
और वह सो जाएगी
क्योंकि, ‘कटनी’ करते-करते बहुत थकी है।
“हेगे दीदी, सुति गेल्हें?
देख, चुल्ही बुताय रहल छौ।”
बहुत गर्व से बुधवा बोला—
“खुसख़बरी सुन,
काल सबेरे आपनऽ खेत में
किसान-सभा के हल चलतौ—
‘बंहुती’ के हल
‘पकरा’ के हल
‘मैनीगिद्धा’ और ‘सिरीपुर’
सभी जगह सँ हल चललौ छै।”
सुनते ही उठ बैठी सुकनी—
“काल सबेरे हम्हीं पकड़बौ
हल का लगना
सबसे आगा,
तों सब हमरा पाछाँ रहिएँ
जहाँ-जहाँ तक जोतबौ खेत
आपनऽ खेत।”
“कैसे हल जोतेगी दीदी?
कैसे लेगी खेत एक औरत होकर वह?”
सोच-सोच बुधवा
रोमांचित हो जाता है—
लेकिन दीदी के चेहरे की
दृढ़ रेखाएँ देख-देखकर
बुधवा भी
अपने पुट्ठे की
ताक़त को अब तौल रहा है।
- रचनाकार : सुरेंद्र स्निग्ध
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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