शहादत इस फ़लक के बीच चमचमाती है...
shahadat is falak ke beech chamchamati hai
वो रात, सद अफ़सोसनाक रात ढली
वो दिन के तेज़ धार ब्लेड चमचमाने लगे
कोई ज़िंदगी से पीठ फेर जाने लगा,
कुछेक ख़त कुछेक तस्वीरें छूट गईं,
कुछेक सपने मुँदी आँखों में हलाक हुए
हुकूमत के लचकदार जाल नोकीले
आदर्श बिंधा मुल्क बिंधा लोग बिंधे
फ़सल के बीच किसी ने मुनादी ख़ुद ही की
कि ये शाम, आख़िरी है शाम, दर्द हद गुज़रा
कफ़स-ए-जिस्म के सब रोज़गार, भर पाया
चिता यहीं जलेगी कल आना सब आना
कोई सितारों तले आस्माँ की छत ओढ़े
नज़र गड़ाए हुए दूर उफ़क़ पार कहीं
कोई ज़मीन में था रोप रहा अपने पाँव
बज़िद उगाने चला ऊसरों के दिल सब्ज़ा
किसी के अक्षरों पे वज्र गिरा बीच शहर
किसी का पूरा शजर राख हुआ क़र्ज़े से
कहीं कपास के खेतों में लाश पाई गई
लहू-सा जम गया कुछ कॉलेजों की सड़कों पे
अजीब नाले हैं पुरख़ार हवा का दामन
जिधर से गुज़रो उधर बेशुमार किरचें हैं
लहू की झीलों किनारे हज़ारहाँ बगुले
लगाए घात बाक़तार साध दम हाज़िर
वो रात गहरी घनी घुप्प हिंस्र फैल रही
जहाँ पे दिल के दाग़ भव्य चमचमाते हैं
जम्हूरी भेख धरे आए पुराने क़ातिल
वे बैठ भव्य-दिव्य गोल भवन योजना बनाते हैं
ख़्वाब फ़स्लों के हों या कि इल्मगाहों के
हैं उनकी छातियों पे सख़्त बूट गड़ते हुए
हक़-बराबरी, हुक़ूक़, न्याय, आज़ादी
उसी भवन की नींव नीचे रोज़ सड़ते हुए
तरह-तरह के हैं मक़तल खुले हुए हरसूँ
तरह तरह के क़त्ल इनमें है ईजाद हुए
चप्पे-चप्पे पे नज़र हरेक की निगहबीनी
सत्ता के पाए इनकी नींव पे आबाद हुए
मुल्क सेल्फ़ी-सलीब सर्द सहर
यहाँ पे हर नज़र के आगे सख़्त कोहरा है
ठंडी एक आग लपलपाती सब जलाती चली
निगाहें झुलसी हुईं आत्मा धुवाँई हुई
सवाल क़त्ल हुए औ' ईमान क़त्ल हुए
धरम की दाग़दार चादरें लपेटे हुए वे निकले
नया नरमेध नई ऋचाएँ नए आक़ा
वही रवायतें वही घृणा वही हरबे
फ़ज़ा उदास लफ़्ज़ भोथरे बेनूर हवा
बग़ैर स्वाद की पृथ्वी औ' आसमाँ बेरंग
अथाह बेचैनी गुमशुदगी ऊभ-चूभ सौदाई
यही है पस-मंज़र जिसमें साँस डूबती है
जो क़त्ल-ख़ुदकुशी के बीच थरथराता है
ये मुल्क अपना, चमन अपना, ख़ाक उड़ती है
ये ज़मीं लूट-झूठ-फूट से भर उट्ठी है
हरेक राह के नीचे बिछी हैं बारूदें
इसी में आदमी और आदमी का एक बच्चा
बावजूद फ़ासले के दोनों सिर उठाते हैं
बिना सहारे के वे आबला-पा मक़तल में
बादशाह खेल देख तालियाँ बजाते हैं
इसी में मुंबई से लेके तेलंगाना तलक
इलाहाबाद नई दिल्ली से हरियाणा तलक
लोग तामीर करने चल पड़े नया एक मुल्क
साथ में सींझी हुई दुख से खड़ी है ये ख़ल्क़
मनु की पोथियाँ जलाते हुए गाते हुए
ग़रीब-गुरबा के संग अपना सुर मिलाते हुए
सब स्त्री-द्वेषियों के नोचते मुखौटे बढ़े
पुलिस की लाठियों और गोलियों के आगे अड़े
यही जुनून यही भाषा ताल छंद यही
चलों चलें इसी में अपना सुर मिलाते चलें
इसे बढ़ाते चलें दुश्मनों की माँदों तक
नए जहाँ का नया नारा मिल गुँजाते चलें
प सावधान हिरावल! तुम्हारी पाँतों में
बाक़तार आ गए हैं घुसने पुराने क़ातिल
जो तुमको तोड़ आदमी से वोट कर देंगे
तुम्हारे ग़ुस्से के रत्नों से जेब भर लेंगे
बहस हज़ार हो, लाखों विचार उमगें-उगें
ज़बर का हाथ तोड़ने हज़ारों हाथ उठें
समझ के साथ लड़ें लड़ते हुए समझें नया
अपनी कमज़र्फ़ियों पे तीखा वार करते चलें
जब सताए हुए लोग साथ लड़ते हैं
धर्म पूँजी पुरुष की सत्ता डगमगाती है
नए जहान की लंबी लड़ाई है ऐ दोस्त
शहादत इस फ़लक के बीच चमचमाती है
- रचनाकार : मृत्युंजय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.