इतना पवित्र था कि प्रेम ही हो सकता था
itna pawitra tha ki prem hi ho sakta tha
प्रदीप सैनी
Pradeep Saini
इतना पवित्र था कि प्रेम ही हो सकता था
itna pawitra tha ki prem hi ho sakta tha
Pradeep Saini
प्रदीप सैनी
और अधिकप्रदीप सैनी
एक
यह पिछली सदी के
उम्मीद भरे आख़िरी दिनों की बात है
सदी बदलने से तो यूँ बदलने वाला कुछ नहीं था
पर तुम अचानक मिली जब मुझे
यक़ीन हो चला था
आने वाले समय में बेहतर होगी दुनिया
विलुप्त हुई नदियाँ
दंतकथाओं से निकल धरती पर बहेंगी
बारूद सिर्फ़ दियासलाई बनाने के काम आएगा
और ऐसे ही न जाने कितने सपनों ने
आँखों में घोंसला बना लिया था
मैं साफ़-साफ़ नहीं देख पाता था वक़्त।
दो
तुम किसी आदिम प्यास के स्वप्न में
मेरे भीतर की बावड़ी तक
अनजाने ही आ गई थीं
वहाँ इतना निथरा था जल
यक़ीनन उसमें तुम
रूप अपना ही देख मुग्ध हुईं
वरना पास तुम्हारे वहाँ आने और बैठ जाने की
वाजिब कोई वजह मौजूद नहीं थी
तुम्हारा आना इतना अप्रत्याशित था
मैं नहीं जानता था
किस नाम से पुकारूँ तुम्हें
तुम्हारी गंध को पहले-पहल मैंने
ख़ुशनुमा जंगल की देन समझा
हड़बड़ाहट में मेरे बहुत ज़्यादा बोलने के बाद भी
तुम कुछ भी सुन नहीं पाईं
जानता ही कहाँ था मैं तब स्पर्श की भाषा।
तीन
अपने लिए हल्की तरफ़दारी के साथ ही सही
आज भी याद है मुझे सब
और इस बीच दस बरस बीत गए हैं
और प्रेम किसी वायरस की तरह चिह्नित किया जा चुका है
बचाव के लिए हम सभी
ख़ुद को स्मृतिहीन बना रहे हैं
कि कहीं दर्ज न हो पाएँ
एक काँपते हुई पल के थमे हुए रंग
कोई ऐसी ध्वनि जो गूँजती रहे ताउम्र
और काया से परे का कोई स्पर्श
बाक़ी सब भी मिटाए जाने की सहूलियत के साथ
कुछ गीगाबाइट मेमोरी के हवाले रहे
सभी बदल रहे हैं लगातार
प्रेम नहीं
वह आज भी आपको नष्ट करने की क्षमता रखता है
बावजूद इसके कि हम सभी
अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में लगे हैं।
चार
इन दस बरसों में
सभी दस अंकों की एक संख्या में तब्दील हो गए हैं
लगातार चल रहा है
असंख्य संख्याओं के बीच
जमा-घटाव-गुणा-भाग
एक संख्या दूसरी से इतना बतियाती है
जैसे अभी-अभी ईजाद हुई हो भाषा
ख़ुदा का शुक्र था
जब हम मिले संवाद कम चुप्पियाँ ज़्यादा बोलती थीं।
पाँच
उस वक़्त मेरे भीतर
सिर्फ़ कविताएँ थीं
रगों में ख़ून नहीं स्याही दौड़ती थी
और कविताएँ धीरे-धीरे ही सही
हमारे बीच पुल बन गई थीं
उनसे होकर हम आ-जा सकते थे
एक दूसरे के भीतर
कविताएँ तुम भी लिखती थीं
अब नहीं लिखती होओगी
सफ़ेद पड़ चुके हल्के गुलाबी रंग वाली स्मृतियों के साथ
उन्हें भी छोड़ दिया होगा तुमने
जैसे दुर्गम पहाड़ पर चढ़ने से पहले
पर्वतारोही आधार शिविर में छोड़ देता है
अगले सफ़र के लिए ग़ैरज़रूरी हो गया
बहुत-सा सामान।
छह
मुझसे बरस दो बरस उम्र में
छोटा होने के बावजूद
कितना समझदार थीं तुम
जान लिया था कि नहीं जिया जा सकता उसके साथ
जो हमारे बीच
इतना पवित्र था कि प्रेम ही हो सकता था।
सात
तुम्हारा जाना मेरे लिए
गहरी नींद से जगकर आँखें मलने जैसा था
मैंने दुनिया को नई नज़र से देखा
इन दस बरसों में
कठिन अभ्यास से अर्जित की है मैंने
सामने घटित होते हुए को न देख पाने की दृष्टि
सिर्फ़ उन आवाज़ों को पहचानने का हुनर
जो मेरे पक्ष में हैं
या जिन्हें मेरे पक्ष में किया जा सकता है
और भाषा का वह तिलिस्म
जिससे अपनी आत्मा के सिवा
सभी को छला जा सकता है
हो सकता है किसी रोज़
तुम मेरे सामने से गुज़रो
और मैं तुम्हें देखूँ एक अपरिचित मुस्कान के साथ।
- रचनाकार : प्रदीप सैनी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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