गीला पड़ा है सदियों पहले लीपा घर
चिप्प-चिप्प चप्प-चप्प करता है पाँव
जहाँ चौक पूरा जाना था
गोबरैलों ने चाल डाला है
उसी जगह को
नींवों से उठती गोबरैलों की गंध
भर रही है बेस्वाद भोजनों में
बारिश की पहली बूँद
फँसी पड़ी है चहबच्चों में
जहाँ से निकलती हैं नदियाँ
वहीं मिल जाती हैं
नलों का पानी नालियों में
नालियों से उल्टा नलों में चढ़ता है पानी
मच्छरों की भनभनाहट ने घोंट दिया है
जीवन-राग
उनके सूँड़ों से गंदैला पानी
पहुँच रहा है फेफड़ों में
संचित हो रहे हैं मृत्यु के बीज
यहाँ आदमी खाँसते ही पैदा होता है
और खाँसते ही मर जाता है
मौसमी नहीं जन्मजात हैं इनकी खाँसियाँ
यहाँ औरतें पसरी हैं घुप्प अँधेरे में
लोग कहते हैं औरतें सौर घर में हैं
औरतें कहती हैं—‘यह कोई काल कोठरी है मौत का कुआँ’
अँधेरे में डूबा कोई बलिदानी चबूतरा
और औरतें सौर घर की बीछियों-सी
अपनी जान की क़ीमत पर
जनती हैं बच्चे
यहाँ बच्चों की आँखें मिचमिचाती हैं
नींद में चुभता है रसोई का धुआँ
रेंगते हैं भूख के असंख्य कीड़े
जो एक इंतज़ार के बाद
उनकी अंतड़ियों पर ही हमलावर हैं
अधूरी ज़रूरतों की परवरिश
बच्चों को जल्दी ही जवान
और बूढ़ा बना देती हैं
यहाँ बरसात में बूँदें कम
केंचुए अधिक गिरते हैं
यहाँ आदमी, औरत और बच्चे
सब सरकते हैं केंचुओं की तरह
हाथों में खिंची आड़ी रेखाओं-सी
जीवन को काट जाती है मौत
भगीरथ की गंगा तारती है
सिर्फ़ भगीरथ के पुरखों को
यहाँ कोई घर नहीं
घरों के अवशेष हैं
यह कोई बस्ती नहीं
एक तिलिस्मी सुरंग है
यहाँ हवा की फूलने लगती है साँस
वह अकुलाती फनफनाती
खोजती है बाहर का रास्ता
मकड़ियों के जाले में फँसी हवा
निरीह मक्खियों-सी दम तोड़ देती है
हर रोज़ मुँडेर से मुँडेर डाफता है सूरज
घोरियों में उलझ गई है दाढ़ी उसकी
मुँडेर का सूरज भूल गया है
रास्ता इस बस्ती का
बस्ती का मुँह जड़ दिया गया है पत्थरों से...
- रचनाकार : अनुपम सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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