शिमला के माल रोड पर वह
shimla ke mal roD par wo
शिमला के माल रोड पर
अपनी पीठ पर रसोई गैस के दो सिलेंडर ढोता वह आदमी
पहाड़ से उतर जाने के बाद भी
पीछा नहीं छोड़ता है
कहते हैं पहाड़ से नीचे उतर जाने पर
कई दिनों तक हमारी पीठ से नीचे नहीं उतरता है पहाड़
कई दिनों तक पहाड़ का बोझ हमें लगता है ख़ुशनुमा
लेकिन शिमला और शिमला के माल रोड का वह आदमी
एक बोझ की तरह बैठ गया है मेरी पीठ पर
माल रोड की कोमलता पर
कहीं खरोंच न आ जाए इसलिए वहाँ
गाड़ियों का प्रवेश वर्जित है
वर्जित है मशीन, चक्के और हॉर्न की आवाज़
हम ख़ुश होते हैं कि चलो अच्छा है कि
इसी बहाने वर्जित है आभिजात्यों से विभेद
हम घूमते हैं माल रोड पर निश्चिंत
हमारे बच्चे दौड़ते हैं यहाँ-वहाँ माल रोड पर निश्चिंत
हम थकते हैं और बैठ जाते हैं माल रोड पर रखी बेंच पर
लेकिन फिर हम सोचते हैं
यह बेंच जिस पर हम सुस्ता रहे हैं
और देख रहे हैं माल रोड की ख़ूबसूरती को
वह कैसे पहुँची यहाँ तक
हम घूमते हैं माल रोड पर
देखते हैं पश्मीना शॉल
हम घूमते हैं माल रोड पर देखते हैं ब्रिटिश स्थापत्य
हम माल रोड पर खड़े होकर देखते हैं
शिमला की ऊँचाई और शिमला की गहराई
लेकिन हर बार वह आदमी किसी न किसी रूप में
मेरे सामने खड़ा हो जाता है
वही आदमी मुझे दिखता है
सुबह-सुबह दूध के कई कैरटों को अपनी पीठ पर लादे
वही आदमी दिखता है कपड़ों के बंडल अपनी पीठ पर लटकाए
वही आदमी दिखता है
हवा को, आग को, पानी को
और ढेर सारे लोहे को अपनी पीठ पर लादे
वह आदमी पठानी सलवार-क़मीज़ में पस्त है
उसका चेहरा काला पड़ गया है
माल रोड का एक दुकानदार मुझसे माँगता है मेरी अँगूठी
और उसके छोटे से छेद से निकालने लगता है
पश्मीन शॉल को वह पूरा
वह कहता है साहब अब ज़माना बदल गया
नहीं तो शॉल का मतलब तो होता था
कि उसे आप रख लेते
अपनी माचिस की डिब्बी में बंद कर अपनी जेब में
मैं अपने भीतर तक महसूस करता हूँ
उस शॉल की मृदुता को
मेरे सामने अँगूठी से निकलती है वह शॉल
कि फिर वह आदमी मेरे सामने खड़ा हो जाता है
लादे पूरे माल रोड को अपनी पीठ पर
वह आदमी लादे है अपनी पीठ पर पूरा माल रोड
वह आदमी कहता है
साहब अभी ख़त्म नहीं हुआ है
हम ख़त्म होने नहीं होने देते
अभी तो बहुत कुछ है ऐसा जिसे आपने देखा नहीं है
वह अपनी पीठ को मेरी ओर कर घूम जाता है
वह आदमी बोझ से आगे की ओर झुका हुआ है
उसकी साँसें तेज़ हैं
मैं देखता हूँ उसकी पीठ पर तरह-तरह के पहाड़
तरह-तरह की चोटियाँ
तरह-तरह की रवायतें
मैं बढ़ाता हूँ अपना हाथ
उनमें से पहाड़ के एक टुकड़े को उठा लेने के लिए
और ठिठक जाता हूँ
मेरी नज़र नीचे जाती है और मैं देखता हूँ
वह आदमी जहाँ खड़ा है उस ज़मीन पर
उसके पसीने की बूँदें गिर रही हैं टप-टप-टप
मैं भागता हूँ और वह आदमी मेरे पीछे दौड़ता है
मैं अभी दिल्ली के अपने कमरे में बंद हूँ
और वह आदमी मेरे सामने बैठा है
मैं पहाड़ की उस ख़ूबसूरती को महसूस करना चाहता हूँ
लेकिन हर बार उसके पसीने की गंध
मेरे नथुनों में भर जाती है।
- रचनाकार : उमाशंकर चौधरी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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