साथी गोरख पांडे की स्मृति में
जाग मेरे मन
मछंदर
रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन
मछंदर,
जाग मेरे मन
मछंदर!
किंतु मन की
तलहटी में
बहुत गहरी
औ अँधेरी
घाटियाँ हैं
रह चुकीं जो
डायनासर का बसेरा
वो भयानक
कंदराएँ हैं,
कंदराओं में भरे
कंकाल
मेरे मन, मछंदर
रेंगते भ्रम के
भयानक ब्याल
मेरे मन, मछंदर
क्षुद्रता के
और भ्रम के
इस भयानक
नाग का फन
ताग तू
फिर से मछंदर
जाग मेरे मन
मछंदर!
सूखते हैं खेत
भरती रेत
जीवन हुआ निर्जल
किंतु फिर भी
बह रहा कल-कल,
क्षीण-सी जलधार लेकर
प्यार और दुलार लेकर
एक झरना फूटता
मन में मछंदर!
रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन
मछंदर!
भरा है सागर मेरे मन
जहाँ से उठकर
मघा के
मेघ छाते हैं
गरजते हैं घन, मछंदर
वृष्टि का उल्लास
भरकर जाग
मेरे मन, मछंदर!
रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन,
मछंदर!
सो रहा संसार
पूँजी का
विकट भ्रमजाल...
किंतु फिर भी सर्जना के
एक छोटे-से नगर में
जागता है एक नुक्कड़
चिटकती चिनगारियाँ
उठता धुआँ है
सुलगता है एक लक्कड़,
तिलमिलाते आज भी
कुछ लोग
सुनकर देखकर अन्याय
और लड़ने के लिए
अब भी बनाते मन, मछंदर!
फिर नए संघर्ष का
उनवान लेकर
जाग मेरे मन
मछंदर!
रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन
मछंछर
बिक रहे मन
बिक रहे तन
देश बिकते
दृष्टि बिकती
एक डॉलर पर
समूची सृष्टि बिकती
और
राजा ने लगाया
फिर हमें नीलाम पर
एक कौड़ी दाम पर
लो बिक रहा
जन-गन मछंदर!
मुक्ति का
परचम उठाकर
जाग मेरे मन
मछंदर!
रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन
मछंदर!
गीत बिकते गान बिकते
मान औ अभिमान बिकते
हर्ष और विषाद बिकते
नाद और निनाद बिकते
बिक रही हैं कल्पनाएँ
बिक रही हैं भावनाएँ
और, अपने बिक रहे हैं
और, सपने बिक रहे हैं
बिक रहे बाज़ार की
खिल्ली उड़ाता
विश्व के बाज़ार के
तंबू उड़ाता
आ गया गोरख
लिए नौ गीत अपने
सुन, मछंदर!
रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन
मछंदर!
सो रहे संसार में
नव जागरण का
ज्वार लेकर काँप
काँप रचना के
प्रबल उन्माद में
थर-थर मछंदर!
फिर चरम बलिदान का
उद्दाम निर्झर
बन मछंदर!
जाग जन-जन में मछंदर
जाग कन-कन में मछंदर
रमी है धूनी
सुलगती आग
मेरे मन, मछंदर!
- पुस्तक : एक पेड़ छतनार (पृष्ठ 33)
- रचनाकार : दिनेश कुमार शुक्ल
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2017
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