संधिकाल
हमारे चारों ओर फैल रहा है हल्का अँधेरा
तोतों के झुंड छोड़कर जा रहे हैं शहर
उनका रंग घुल रहा है इस अँधेरे में
यह वह जगह है, जहाँ कविताओं की आख़िरी
पंक्तियाँ भी ख़त्म होती हैं
यह संधिकाल है शब्दों और घुप्प अँधेरी ख़ामोशी के बीच
इस जगह कविताओं की आख़िरी पंक्तियाँ भी
ख़त्म हो जाती हैं
अपने बसेरों से बाहर आकर कबूतर मँडराते हैं ऊपर-ऊपर
एक चौराहा, मेहराबें, असंख्य दिशाओं को जाती
सड़कें, खिड़कियाँ, सबके बीच फैली प्राचीन गंधवाली हवा
सब कुछ धीरे-धीरे घुलता है एक अदृश्य द्रव में
दृश्य के बाहर के पेड़ों कीसूखी पत्तियाँ उड-उड़कर
यहाँ जमा होती जा रही हैं।
एक और दृश्य प्रकट होता है धीमे-धीमे
पुराने अख़बार, टूटा फ़र्नीचर, विस्मृति
पीतल के हरे पड़ते बर्तन, एक आईना
चमकता एक अकेली आँख-सा, सीढ़ियाँ, उन पर
पड़े पुराने अख़बारों पर झरती हैं सूखी पत्तियाँ
एक निरर्थक बस स्टॉप पर अंतहीन प्रतीक्षा
करता है एक आदमी
मैं भूल जाना चाहता हूँ सब कुछ जो छूट गया है
जैसे एक पल बिजली की कड़कड़ाहट में स्मृतियाँ
स्तब्ध हो जाती हैं गौरैया के बच्चों की तरह
मैं जीना चाहता हूँ इस क्षण में लगातार
मैं यह आख़िरी सीढ़ी शब्दों की उतर जाना चाहता हूँ।
घुलती जा रही हैं पत्थर की सीढ़ियाँ
मेहराबें और खिड़कियाँ, एक
कबूतर अब तक बैठा है एक अँधेरे कोने में
हवा में फैली हैं वे घातक भूलें जो हमने नहीं कीं,
हमसे संभव नहीं है जिनका प्रायश्चित्त भी
लेकिन क्यों जाना है हमें शब्दों के पार
भाषा ही थी जिसकी दूब-सी उँगलियों से
छू-छूकर हमने जानी थी दुनिया
हम जो अंधे थे किसी भी कवि की तरह
हम जो गूँगे थे किसी गायक की तरह
दूर तक फैली बस्तियाँ देखते हैं अपनी बूढ़ी आँखों से
पछताते हैं पुरखे तरस खाते हैं हमारी बदक़िस्मती पर
भाषा में याद रहती हैं वे चीज़ें जिनका कोई
प्रायश्चित्त नहीं
मैं भूलना चाहता हूँ ख़ास तौर पर वे चीज़ें
जो नहीं हुईं
देखा नहीं जाता हमसे पछताना पुरखों का जिनकी
वजह से लौटना सबसे कठिन क्रिया
बन गई है हमारी भाषा के
अकालग्रस्त क्षेत्र में
एक आदमी अपने ही प्रतिबिंब का इकतारा लेकर
गाता हुआ खड़ा है
यह संधिकाल है
भूलने और लौटने के बीच एक तनी हुई
रेखा पर घूम रही है पृथ्वी
दंभ या लापरवाही से जिसका पैर
डगमगाएगा
वह गिरता चला जाएगा अतल गहराई में।
- पुस्तक : दो बारिशों के बीच (पृष्ठ 12)
- रचनाकार : राजेंद्र धोड़पकर
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 1996
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