प्रात की प्रत्यूष वेला—
रात के घनघोर, काले क्षणों के उपरांत की यह शांत वेला
अभी मीठी नींद की सुधि शेष है मेरे दृगों में
और सपनों की मधुरिमा से रँगा है फूल-सा मन
सहज, हल्का।
कवि-प्रिया का सजल अंचल ज्यों बिछा है प्राण पर अब भी
दूर जिसके देश में अटके हुए हैं आज भी जो भाव मेरे
तिमिर के मोहन—असंयम में लगाते हैं विकल फेरे
जिस प्रतनु के अलक के चहुँ ओर
जिस सलोनी कामिनी के पलक में बस बुला देते हैं विसुध तंद्रा
सुला देते हैं पिया सी पिया से गुँथ, एक होने की
पिया के साथ सोने की
सुनहली चाह।
वही कविता-कल्पना चिर-साध जीवन की
वही अंचल परस जिस का वरद पारस-सा
और वे ही मधु-भरे लघु-भाव।
जी रहे हैं ज्यों अभी मेरी अतार्किक दृष्टि में।
सृष्टि में।
इसी से तो अभी कोलाहल नहीं रवमान
सभी जैसे कर्म का आह्वान
अरुण की नवजात किरणें दे न पाई हों जगत् को।
क्षणिक, मीठी अटपटी यह सुखद वेला
रात के उन दीर्घ, कंपित, भय-भरे ऊबे पलों से
है नितांत विभिन्न।
- पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 95)
- संपादक : अज्ञेय
- रचनाकार : भारतभूषण अग्रवाल
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 2011
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