एक
बावजूद इसके कि सब कुछ अलग और सुंदर था
आलाप के मंद्र की आत्मीय आवाज़
और धीरे-धीरे डूबते जाना मन का
अथाह के अजब अंतरंग में
पर एक संक्षिप्त द्रुत के बाद
अंत वैसा ही था
पहले अनवरत तालियाँ और
फिर एक सन्नाटा
लगभग निस्पंद एक छंद
शरीर के पोर-पोर में निरर्थ गूँजता
और अगली सुबह फिर देखना
मोह और तृष्णा, प्रेम और कामना के दर्पण में
अपना ठोस, ठस्स फिर भी जर्जर अकेलापन
लौटना फिर उसी जगह जहाँ न इंतज़ार
न उम्मीद, न रात, न नींद
मुँदी आँखों में अकेले बिस्तर पर
गुनगुनाना कोहरे के घर का गीत
याद करना अतीत और वर्तमान का
अदृश्य लहूलुहान
भागने की कोशिश में बेदम होकर
भर लेना गिलास
हालाँकि कुछ भी नहीं था अप्रत्याशित
इस निचाट पराए पथराए शहर में
अंत की पूर्व निश्चित तस्वीर यही थी
मन के बीहड़ों के किसी कोने में छिपी
जो ख़ामोश देख रही थी मेरा खेल
पर हर बार की तरह इस दफ़ा
मैं नहीं रहा चौकस और चतुर
मैंने बिसार दिया था व्यवहार
सभ्य समाज के नियम क़ायदों की दीवार फाँदकर
भूलकर अपनी उम्र का स्वभाव और सीमाएँ
मैं सरपट दौड़ रहा था
दो तरफ़ से मुझसे लिपटती जंगली हवाओं के बीच
एक काली सूनी सड़क पर बेख़ौफ़ और निर्द्वंद्व
जबकि मुझे पता था,
किसी को कहीं नहीं ले जाता यह रास्ता
यह जंगल, यह नदी, यह पहाड़
दो
पानी पर लिखे की तरह मायावी इबारत है
पर अभी यह जो लिखत है, वही तो हूँ मैं
असहाय और अकेली, इस अंतहीन रात का कवि
मैं ही तो हूँ
उसके अद्वितीय अनंग की समृद्ध संपन्नता का न सही
अपने अंग-अंग के बेराहत मुक़ाम पर मासूम अपने
स्वप्न के बिखरने का अदना और अकेला दर्शक तो
मैं हूँ ही
बावजूद इसके कि दृश्य न सुखांत है न दुखांत
वही है, बिल्कुल वही, जिसे देख चुका हज़ार बार
और देखता रहूँगा निभ्रांत उम्र की करुण ढलान पर
पत्थर पर अँकुराते पौधे की सुंदरता का
लगातार दुहरता परिचित इतिहास
अपनी अबुझ प्यास की अपठनीय डायरी में
फिर लिखूँगा कोई कविता
महज़ अपने होने के दुख की एक धुँधली लकीर
हवा में लिखे, लिखत-सी वह भी होगी
अदृश्य तत्काल
महाकाल के क्रूरतम व्योम में
निस्पंद एक छंद
प्रेम का
- रचनाकार : प्रभात त्रिपाठी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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