मुश्किल से शुरू हुई दुनिया
mushkil se shuru hui duniya
वह बीच सड़क पर चल रहा था
हाथ में अपनी जीत का झंडा लिए
और नारे लगाता हुआ
यह मानकर कि उसके पीछे
उसके समर्थकों का जुलूस है
तमाशाई नहीं
ग़दर के लखनऊ से भी ज़्यादा पुराना
शायद वह तब का था
जब अवध के नवाबों की राजधानी
फ़ैज़ाबाद थी, या और पहले का
जब अयोध्या बसी किसी पुराकाल में
वरना कैसे होते उसके अंदर
ऐसे-ऐसे पवित्र खँडहर,
बीहड़ और पेचदार गलियाँ,
भुतही-इमारतें, टूटी-फूटी सड़कें,
अँधेरी बेहाल जगहें जिनका ओर-न-छोर,
कैसे होता वह ज्वालामुखी अतल अंधकूप
जिसमें झाँकते ही चक्कर आ जाता,
कैसे होते वे तमाम लोग उसकी दुनिया में
जो आते—बसते—और चल बसते—
अपने माल-असबाब जहाँ-तहाँ छोड़कर।
एक डरावना पशु जब भी
एक डरे हुए प्राणी पर झपटता
उसके उत्खनन के लिए प्रेरित होता हूँ
एक पुरातत्ववेत्ता की तरह :
किसी भी पुरानी या नई बस्ती में
जब भी आग लगती
तब मिट चुकी सभ्यता के सुराग़ खोजते हुए
जो तथ्य हाथ लगते उन्हें देखकर
हैरत से डूब जाता हूँ एक रहस्यमय चुप्पी में
जैसे समुद्रतल में निमग्न कृष्ण की द्वारिका।
समय की सत्ता न तो आत्यंतिक है।
न प्रावेशिक : न संग्रही, न विग्रही :
शायद वह केवल वैचारिक है जिसकी
विराट निरावधि में
बल खाते असंख्य ब्रह्मांडों को
केवल किसी अनुमान-दृष्टि से ही देखा जा सकता है!
एक मारक विषाणु की तरह
अपने ही शरीर के गढ़ में घुसकर
भारी मारकाट मचाती हुई विनाश-लीला
इतिहास नहीं, एक दुःस्वप्न है—
एक सुस्त अजगर की तरह ख़ुद को ही
अपनी दुम की ओर से निगलने लगना
किसी भौगोलिक अ-घटना के कश में
खिंचकर समा जाना है
काल के खोखले विवर में पुनः
एक ऐसी सृष्टि का जो अभी
मुश्किल से शुरू ही हुई है।
- पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 122)
- रचनाकार : कुँवर नारायण
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2008
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