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राँची : शहर से जाते हुए

ranchi : shahar se jaate hue

पीयूष तिवारी

पीयूष तिवारी

राँची : शहर से जाते हुए

पीयूष तिवारी

और अधिकपीयूष तिवारी

    छूटते शहर में वह इमारत

    सबसे आख़िर में दिखी

    जो आते हुए शहर में

    दिखी थी पहली बार

    शहर से अनुरक्ति शहर में रहते नहीं

    शहर छोड़ने के क्रम में

    उभरती है मूक रुलाई बन कर

    छूटते शहर की सड़क

    बिछाए रखती है अमलतास के आभूषण

    जिसे देख कर हर आते हुए यात्री की

    आँखों से टपकती है लिप्सा

    और जाते हुए की आँखों में संतुष्टि चमकती है

    छूटते शहर की ट्रेन इतनी धीमी चलती है

    कि स्मृति में बैठे सारे दृश्य

    रफ़्तार में चलने लगते हैं

    भीतर सावधानी से

    पश्चाताप करते हुए भी

    काँप जाता है शिथिल प्राण

    छूटता शहर हम में छोड़ जाता है

    अपने गलियों-चौराहों की पीली शाम

    संवाद में अपनी उपस्थिति

    एक गंभीर लहज़ा एक विचित्र कोलाहल

    छूटता शहर संदिग्ध परिस्थिति में झटक कर

    बंद की गई खिड़की है

    जिसके जालीदारनुमा वेंटीलेटर से

    नहीं आती रौशनी

    प्राणवायु छूट जाता है बहुत पीछे

    फैल जाता है तनाव भरा सन्नाटा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : पीयूष तिवारी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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