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ई-रिक्शा : कहाँ जाओगे भाई सा’ब!

तीन का आँकड़ा क्या है? 

तीन लोग हों, तो भी अर्थी ले जाई जा सकती है, बस एक तरफ़ थोड़ा झुकाव रहेगा।
लोक-विश्वास देखें, तो तीन तिगाड़ा-काम बिगाड़ा।
सुखी परिवार को भाषा को बिन परखे कहा जाए तो दो मियाँ-बीवी और एक बच्चा। 
जाटनी दादी कहती थीं कि थाली में तीन रोटी नहीं रखनी चाहिए, अशुभ होता है।
अंक-ज्योतिष कहता है कि संख्या तीन के अंतर्गत जन्म लेने वाले लोगों को परेशानी हल करने वाले लोगों के तौर पर जाना जाता है।
एक त्रिकोण अपनी आकृति को तीसरी भुजा से पूरा करता है।
त्रिशूल के तीन शूल है—सत्व, रज और तम।
भगवान भोले के तीन नेत्र हैं।
पूजा-पाठ में त्रि-कुश निर्मित पवित्री धारण की जाती है।
आरती तीन बार उतारते हैं और परिक्रमा के संबंध में भी तीन का महत्त्व है।
त्रिपुंड भी तीन लकीरों का है।
ज्योतिष में तीन का आँकड़ा विवाह के लिए शुभ है, पर विवाह के लिए तीन लोगों का जाना अशुभ माना जाता है।
लोक चौदह हैं, लेकिन मान्यता तीन लोक की हैं।

इन्हीं तीन लोकों में से एक में बसता हूँ मैं और मैं कोई बड़ा आदमी नहीं हूँ और कोई मशीन भी नहीं। मैं आप ही की तरह का एक निम्नमध्यवर्गीय आदमी हूँ, जो रोज़ी-रोटी के लिए घर से दूर एक दफ़्तर में की-बोर्ड खटखटाता है और दुत्कारे हुए कुत्ते की तरह अपनी तन्हाई में लौट आता है। मेरे जीवन में भी दुख है; पीड़ा है और लगभग-लगभग वही सब कुछ है, जो आप सब लोगों के जीवन में है। लेकिन इन दिनों मेरी ज़िंदगी में रोज़ एक चीज़ आन खड़ी होती है—एक रिक्शा। बैट्री चार्ज होकर चलने वाला एक रिक्शा, जिसे ई-रिक्शा भी कहा जाता है।

शेक्सपियर ने कहा था कि, “What’s in a name? That which we call a rose by any other name would smell as sweet.” ई-रिक्शा सहस्रनामधारी है। उसके सैकड़ों रूप हैं। उसे टुक-टुक , टो-टो, बेबी टैक्सी, बाओ-बाओ, चाँद गारी, ईजी बाइक, जॉनी बी, लापा, टुक्सी, टुम-टुम... कुछ भी कहा जा सकता है। ई-रिक्शा अपने आपमें अनूठा है। उसकी तरह न पुष्पक विमान है और न कोई स्पोर्टी बाइक।

इंसानों-हैवानों की इस भीड़ में मौजूद, हम सबको इतनी बार इधर से उधर तो भगवान भी शायद ही ले जा सकते थे। हमारी यात्राओं में जब कोई साथ नहीं था, तब भी ई-रिक्शा था। सुबह उठने के बाद से रात को बिस्तर तक पहुँचने तक, मैं शायद ही ई-रिक्शा से ज़्यादा किसी और चीज़ को देखता होऊँगा। इतना तो शायद मैंने किसी को न निहारा होगा, जितना चाहे-अनचाहे मैंने इन रिक्शों को निहारा है। सुबह घर से निकलो तो ई-रिक्शा। दफ़्तर पहुँचो तो ई रिक्शा। प्रेमिका से मिलने जाओ तो ई-रिक्शा। शराब ख़रीदने जाओ तो ई—रिक्शा। अगर वाहनों का वर्गीकरण करने के लिए कोई मुझसे कहे, तो मैं एक ख़ाने में ई-रिक्शे को रखूँगा और एक ख़ाने में रखूँगा—बाक़ी सारे वाहन। मैं यह कहते हुए गर्वित हूँ कि भारत के अगड़ों के पास अगर सेडॉन, एसयूवी हैं तो जन के पास ई-रिक्शे हैं। 

वरिष्ठ कवियों से मिलने पर मुझे ई-रिक्शे की और शदीद याद आती है। ई-रिक्शे का चौथा पहिया स्टेपनी के नाम से जाना जाता है और ‘इंडियाज़ नंबर 1 पैकर्स और मूवर्स, अभी फ़ोन करें’ का लिबास पहने दिखता है। ऐसी ही एक स्टेपनी या स्टेपनियाँ, वरिष्ठों के साथ लगी रहती हैं। ये वही हैं, जो वरिष्ठों के पंक्चर होने पर भी काम नहीं आतीं, मगर हवा भरे इठलाती रहती हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि उर्दू-हिंदी सबसे ज़्यादा स्टेपनीयुक्त भाषा है। वह दिन दूर नहीं जब स्टेपनियाँ ही रह जाएँगी, कवि बिसरा दिए जाएँगे।

दिल्ली से लेकर कश्मीर तक इन ई-रिक्शों का एकछत्र राज है और वह दिन दूर नहीं जब सेंट्रल दिल्ली के बीचोबीच चलते हुए किसी ई-रिक्शे पर आप पेंट से बिगड़ी हुई लिखावट में लिखा पाएँगे :

हबू घौस, प्रधानमंत्री, भारत!

जब नब्बे के दशक में ई-रिक्शा का पहला प्रोटोटाइप बना था, तब कौन यह जानता था कि यह क्रांति साबित होगा। यह किसे पता था कि 2010 में दिल्ली को साफ़-सुथरा बनाए रखने के लिए ई-रिक्शे लॉन्च हुए थे, तो इनकी संख्या एक दिन दिल्ली के नवजात बच्चों की संख्या के लगभग समानांतर हो जाएगी।

आज किसी आम गाड़ी में अगर छह लोग हों; तो वहाँ पैर धरने के लिए भी जगह नहीं बचती, मगर ई-रिक्शा छह लोगों को सवार करके भी सड़क पर छह लोगों से कम जगह घेरता है। किसी बाज़ार में राह चलते लोगों की तशरीफ़ से कोहनी घिसटते हुए आगे बढ़ते जाने की घटना केवल ई-रिक्शा में ही संभव हो सकती है, किसी बोइंग-737 में नहीं।

मुझे बी (परदादी) याद आती हैं। बालसुलभ चंचलताओं के वशीभूत मैं एक दिन उनसे सवाल कर बैठा, “बी, यह दुनिया तो इतनी बड़ी है, इस पर क़ाबू कैसे किया जा सकता है! क्या ख़ुदा के लिए यह मुश्किल नहीं?” 

बी बोलीं, “अल्ला मियाँ के पास एक दो पहिये की गाड़ी है, वह जिस पर यहाँ से वहाँ घूमता-फिरता है। वह सब देखता रहता है—घूम-घूमकर।” अब इस उम्र में लगता है कि वह दो पहिये की गाड़ी नहीं, तीन पहिये का एक ई-रिक्शा होगा, जो सर्वत्र व्याप्त है और जिससे हम पर निगाह रखी जा रही है और ख़ुदा ने तरस खाकर अपना वाहन रोज़ी-रोटी के लिए दुनिया के लोगों को दे दिया है। 

मेरी स्मृति में इसका एक और बिंब है... महामारी के दिन हैं और इसी देश में एक ई-रिक्शे पर एक अचेत आदमी पड़ा है और उसे उसकी पत्नी मुँह से साँस मुहय्या कराने की कोशिश कर रही है। आपको यह तस्वीर याद होगी। मुझे यह बतलाइए कि ई-रिक्शा जीवन बचाने की कोशिशों में साझेदार नहीं था? 

लोगों के कफ़न, ऑक्सीजन-सिलेंडर, खिचड़ी और लाशें... सब जगह ई-रिक्शा था। शव ढोता हुआ, सिलेंडर बाँटता हुआ, इंजेक्शन ख़रीदने के लिए लोगों को लादे घूमता हुआ। आप शायद ई-रिक्शे की महत्ता न जानते हों, मगर मैं जानता हूँ। यह जीवन-रक्षक रिक्शा है और जीवन-दायक भी। यह आशाएँ देने वाला भी है।

हमारे मुहल्ले का डिप्टी (काल्पनिक नाम) रिक्शा चलाता था। जब ई-रिक्शा आया, तो उसका काम ख़त्म हो गया। कुछ दिन तो उसने इधर-उधर के कुछ काम किए और जब एक दिन एक दुर्घटना में उस का दायाँ पैर बेकार हो गया, तो बड़ी दिक़्क़त सामने आन खड़ी हुई। तब एक एनजीओ ने उसे एक ई-रिक्शा दे दिया। वह अब भी उसे चलाता है और ख़ुदा की क़सम, मुझसे ज़्यादा पैसा कमाता है! 

तो मेरे भाइयो! मान लीजिए कि अर्श-ए-मुअल्ला से ख़ुदा ने हम इंसानों को तोहफ़तन ई-रिक्शे जैसी चीज़ भेजी है। 

लॉकडाउन के दिनों में भारत की जनसंख्या तेज़ी से बढ़ी और ई-रिक्शों की संख्या भी। मैं नहीं जानता कि यह ई-रिक्शा कब मेरे जीवन में एक मज़बूत स्तंभ की तरह आकर खड़ा हो गया। मेरी स्मृति में फिर कुछ बिंब लहर खा रहे हैं... पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मयूरी नामक कंपनी ने पहली बार बैट्री से चलने वाले रिक्शे लॉन्च किए, तो उन्हें किसी ने भी रिक्शा कहकर न पुकारा। इसका कारण शायद उनके मन में पैडल रिक्शों के प्रति हिकारत का भाव था। उन्हें पहचान के लिए मयूरी कहकर ही पुकारा जाने लगा। तीन पहियों वाले ये नीले, लाल-काले रिक्शे सवारी और सामान ही नहीं दुनिया की हर चीज़ ले जा सकते थे। किसी का शव, विदा होती दुल्हन, कालाबाज़ारी का कोटा राशन, कवियों को, वामियों को, दक्षिणपंथियों को, भाभियों को, दीदियों को... अलग़रज़ दुनिया की हर चीज़। इस पर शपथ-ग्रहण समारोह के लिए कोई राजनेता भी सवार हो सकता है और इस पर लाउडस्पीकर टाँगकर भीड़ को संबोधित भी किया जा सकता है। अगर दुनिया में ई-रिक्शा न होता, तो कितने नेताओं के चुनाव-प्रचार-कार्यक्रम अधूरे रह जाते और कितनी शादियों में मेहमान समय से नहीं पहुँच पाते, कितने हफ़्तेवारी बाज़ारों में भीड़ नहीं होती, कितने लोग छूट जाते इस भीड़ में। कितने प्रेमी-प्रेमिका से मिलने से वंचित रह जाते। क्या अब भी आप ई-रिक्शा को ख़ुदा की नेमत तस्लीम न करेंगे!

मुझे यह लगता है कि अगर दुनिया का चलने का क्रम उल्टा कर दिया जाए तो सारे भगवानों, पीरों, पैगंबरों के वाहन ई-रिक्शे ही मिलेंगे। इसकी एक वजह यह है कि कम ख़र्च में धर्म का ज़्यादा फैलाव... चार्ज करो और चलाओ। धर्म-प्रचारकों के लिए सबसे उपयुक्त वाहन है—ई-रिक्शा। इसे चलाते रहो और फैलते-फैलाते रहो, ऊपर वाले से अंत में एक बार में समूचा ट्रैवल एलाउंस पाओ।

हमारे देश में अभी भी ऐसी बहुत सारी जगहें हैं, जहाँ गाड़ियाँ और मोटरसाइकिल वग़ैरा उतनी तादाद में नहीं हैं। ऐसे में वहाँ रिक्शा और ई-रिक्शा काम आते हैं। मसाला बेचते हुए, मुर्ग़े बेचते हुए या जुगाड़ू माइक बाँधे, बोलते हुए : 

पजामे सौ के चार लो
बच्चों की टाँगें डाल लो
~
चूरन बालमखीरा
आपके पेट को बना देगा हीरा
~
दीदी हो गई लोटमलोट
सस्ते हो गए पेटीकोट 

नवयुवक कवियों को इन रिक्शों पर गूँजती लोक-कविताओं से प्रेरणा लेनी चाहिए, वरना वे नहीं जान सकेंगे कि उनसे क्या छूट गया है!

आप आए दिन कार कंपनियों के प्लांट में झगड़े, हड़ताल और यूनियनबाज़ी की ख़बरें सुनते होंगे, लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि किसी ई-रिक्शे के प्लांट से कोई ऐसी ख़बर आई हो। आ ही नहीं सकती, क्योंकि इसे शांतिप्रिय लोग बनाते हैं और अशांतिप्रिय लोग चलाते-सवार होते हैं। सरकार को ई-रिक्शा प्लांट्स एसोसिएशन को नोबेल पीस प्राइज़ दिलाने के लिए कोशिशें करनी चाहिए। 

मैं इस बात पर क़ामिल ईमान लाता हूँ कि सूर्य का रथ जैसी चीज़ इस दुनिया में कभी नहीं थी। जिसे हम सूर्य का रथ जानते हैं, वह दरअस्ल सूर्य का ई-रिक्शा है। ज़रा कल्पना कीजिए :

तेजयुक्त चेहरे वाले सूर्य देवता ई-रिक्शा की अगली सीट पर घुटने मोड़े तन्मयता के साथ बैठे हैं और पीछे कुमार सानू का ‘धीरे-धीरे प्यार को बढ़ाना है...’ चल रहा है। सूर्य का उत्तरीय हवा में लहरा रहा है। उनके कुंडल धीमे-धीमे हिल रहे हैं। समूची सृष्टि शांत है सिवाय बयार के और सूर्य का त्रि-चक्रीय रथ बढ़ा आ रहा है। सारे देवता ये दृश्य देखकर हर्षित और मुग्ध हैं। 

इस दृश्य को भी आप सोचिए कि आप मेट्रो से उतरें और पट-पट खैनी रगड़कर कोई सूर्य के रथ का चालक बड़े नाज़ से आपको अपने रथ में बैठाए और फिर आप राह चलते हर शख़्स को हिकारत की नज़र से देखें। है न दस के किराये में सौ का मज़ा... दस में तो स्वयं सूर्य देवता भी आपको यह सुख नहीं दे सकते।

ई-रिक्शा दुनिया का वाहिद ऐसा वाहन है, जिसे पाने के लिए आपको ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। आपको बस लेनी है, बस अड्डे जाइए। रेल लेनी है, रेलवे स्टेशन जाओ। लेकिन ई-रिक्शा! बस जहाँ खड़े हैं, वहाँ से दस-बीस क़दम चलिए या फिर वहीं खड़े होकर इंतिज़ार कीजिए। आपको सहसा ही आता दिखेगा वह वाहन, जो धरती का शृंगार है, हमारे शहरों की सुंदरता का आधार, हमारी सड़कों का राजा, कहता हुआ :

दीनों का मैं वेश किए,
पर दीन नहीं हूँ, दाता हूँ मैं!
अग्नि देश से आता हूँ मैं!

और तो और इसके चालक भी अपने आपमें दिव्य व्यक्तित्व होते हैं। एक निंतब के आधार पर झुके हुए, बज रहे गाने का लुत्फ़ लेते हुए और सहसा ही आपकी बाँह पकड़कर कहते हुए : आइए, आइए, बैठिए, बैठिए...

ऐसे भला कब लैला ने क़ैस को बुलाया होगा, जैसे ये बुलाते हैं। इतनी अधिकार भावना के संग कि आपको लगता है : आप इस शख़्स को कैसे इंकार कर सकते हैं। 

चले आओ चले आओ तक़ाज़ा है निगाहों का
किसी की आरज़ू ऐसे तो ठुकराई नहीं जाती

ई-रिक्शे ने उम्र और लिंग के फ़र्क़ को धुँधला कर दिया है। इसका चालक मुँह में दिलबाग़ गुटखा भरे 15-16 साल का कोई लड़का भी हो सकता है और खाँसता हुआ कोई बूढ़ा भी और घर सँभालती कोई स्त्री भी। इसके चालक हिंदू भी हैं, मुसलमान भी, तुर्क भी, अफ़ग़ान भी। यह एकता का परिचायक है। इसके चालकों में धर्म का कोई झगड़ा नहीं। झगड़ा है तो बस इतना कि इस वाले में नहीं इस वाले में बैठिए! अगर आपके पास किराये के खुले पैसे हैं, तो ऐसी मुस्कान मिलेगी आपको कि आपकी प्रेमिका भी वैसी मुस्कान के साथ आपको नहीं देख सकती।

वे भेदभाव रहित हैं। 
वे हर किसी को ले जा सकते हैं। 
वे सच्चे मार्क्सिस्ट हैं। 
वे सर्वहारा का ध्यान रखते हैं।
वे संगीत-प्रेमी हैं।
वे आशिक हैं, आवारा भी हैं, चिंतक भी हैं और हवाबाज़ भी।
वे ‘वहदत-उल-वुजूद’ का रहस्य हैं।

आप उनके बारे में सब कुछ नहीं जान सकते, सिवाय इसके कि ई-रिक्शा, सर्वव्यापी घुस्सू हैं। वे वहाँ भी घुस सकते हैं, जहाँ आप सोच नहीं सकते। भीड़ में, बाज़ार में, आड़ में, बाड़ में... आपकी... 

मैं कह देना चाहता हूँ : यह समय कवियों का नहीं है और न ही साहित्यकारों का, यह ई-रिक्शों का समय है। इस संसार में कवियों से अधिक हो चुकी है उनकी संख्या। लेकिन फिर भी वे थोड़े हैं और उनकी पूछ अधिक। 

तो प्यारे लोगो! इन ई-रिक्शों की महिमा को पहचानो, उन्हें प्यार दो। उनके चालकों से अच्छा व्यवहार करो। अपने वाहनों व उनके चालकों को पुचकारो, वरना पैदल चलोगे और...

पैदल तो आप अक़्ल से भी हैं, जो इस ई-रिक्शा महिमा-गान को अंततः पूरा पढ़ गए!

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