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मेरे 'मैं' के बारे में

mere main ke bare mein

लवली गोस्वामी

लवली गोस्वामी

मेरे 'मैं' के बारे में

लवली गोस्वामी

और अधिकलवली गोस्वामी

    मुझे थोड़ा-थोड़ा सब चाहते थे

    ज़रूरत के हिसाब से कम-बेशी

    सबने मुझे अपने पास रखा

    जो हिस्सा लोग ग़ैर-ज़रूरी समझकर अलगाते रहे

    मेरा 'मैं' वहाँ आकार लेता था

    आख़िर जो हिस्सा ख़र्चने से बाक़ी रह जाता है

    वही तो हमारी बचत है

    रात के तीसरे पहर मेरी परछाई

    दुनिया के सफ़र पर निकलती है

    उन परछाइयों से मिलने

    जिन्हें अपने होने के लिए

    रौशनी की मेहरबानी नहीं पसंद

    कुछ पुकारें हैं मेरे पास जो सिर्फ़ अँधेरी रातों के

    घने सन्नाटे में मुझे सुनाई देती हैं

    कुछ धुनें हैं जो सिर्फ़ तब गूँजती हैं

    जब मेरे पास कोई साज़ नहीं होता

    कविता की कुछ नृशंस पंक्तियाँ हैं

    जो उस वक़्त मेरा मुँह चिढ़ाती हैं

    जब मेरे पास उन्हें नोट करने के लिए वक़्त नहीं होता

    कुछ सपने हैं जो रोज़ चोला बदलकर

    मुझे मृत्यु की तरफ़ ले जाते हैं

    अंत में नींद हमेशा मरने से पहले टूट जाती है

    जिस समय लोग मुझे चटकीली सुबहों में ढूँढ़ रहे थे

    मैं अवसादी शामों के हाथ धरोहर थी

    क्या यह इस दुनिया की सबसे बड़ी विडंबना नहीं है

    कि रौशनी की हद अँधेरा तय करता है?

    रौशनी को जीने और बढ़ने के लिए

    हर पल अँधेरे से लड़ना पड़ता है

    मैं लड़ाकू नहीं हूँ, मैं जीना चाहती हूँ

    अजीब बात है, सब कहते हैं

    यह स्त्री तो हमेशा लड़ती ही रहती है

    मैं ख़ुद पर फेंके गए पत्थर जमा करती हूँ

    कुछ को बोती हूँ, पत्थर के बग़ीचे पर

    पत्थर की चहारदीवारी बनाती हूँ

    उन्हें इस आशा में सींचती हूँ

    किसी दिन उनमें कोपलें फूटेंगी

    हँसिए मत, मैं पागल नहीं हूँ

    हमारे यहाँ पत्थर औरतों और भगवान

    तक में बदल जाते हैं

    मैंने तो बस कुछ कोपलों की उम्मीद की है

    अपने होने में अपने नाम की ग़लत वर्तनी हूँ

    मेरा अर्थ चाहे तब भी मुझ तक पहुँच नहीं सकता

    उसे मुझ तक ले कर आने वाला नक़्शा ही ग़लत है

    दुनिया के तमाम चलते-फिरते नाम

    ऐसे ग़लत नक़्शे हैं जो अपने लक्ष्यों से

    बेईमानी करने के अलावा कुछ नहीं जानते

    जवाबों ने मुझे इतना छला

    कि एक दिन मैंने सवाल पूछना छोड़ दिया

    मैं नहीं हो पाई इतनी कुशाग्र

    कि किसी बात का सटीक जवाब दे सकूँ

    इस तरह मैं सवालों के काम की रही

    जवाबों ने मुझे पसंद किया

    अलग बात है शब्द ढूँढ़ते ढूँढ़ते,

    मैंने इतना जान लिया कि

    परिभाषाओं में अगर दुरुस्ती की गुंजाइश बची रहे

    तो वे अधिक सटीक हो जाती हैं

    कुछ ख़ास गीतों से मैं अपने प्रेमियों को याद रखती हूँ

    प्रेमियों के नाम से उनके शहरों को याद रखती हूँ

    शहरों की बुनावट से उनके इतिहास को याद रखती हूँ

    इतिहास से आदमियत के जय के पाठ को

    मेरी कमज़ोर स्मृति को मात देने का

    मेरे पास यही एकमात्र तरीक़ा है

    भूलना सीखना बेशक जीवन का सबसे ज़रूरी कौशल है

    लेकिन यह पाठ हमेशा उपयोगी हो यह ज़रूरी नहीं है

    मन एक बैडरूम के फ़्लैट का वह कमरा है

    जिसमें जीवन के लिए ज़रूरी सब सामान है

    बस उनके पाए जाने की कोई माक़ूल जगह नहीं है

    आप ही बताएँ वक़्त पर कोई सामान मिले

    तो उसके होने का क्या फ़ायदा है?

    मेरे पास कुछ सवाल हैं जिन्हें कविता में पिरोकर

    मैं दुनिया के ऐसे लोगों को देना चाहती हूँ,

    जिनका दावा है कि वे बहुत से सवालों के जवाब जानते हैं

    जैसे जब तबलची की चोट पड़ती होगी तबले पर

    तब क्या पीठ सहलाती होगी मरे पशु की आत्मा?

    जिन पेड़ों को काग़ज़ हो जाने का दंड मिला

    उन्हें कैसे लगते होंगे ख़ुद पर लिखे शब्दों के अर्थ?

    वे बीज कैसे रौशनी को अच्छा मान लें?

    जिनका तेल निकाल कर दिए जलाए गए,

    जबकि उन्हें धरती के गर्भ का अंधकार चाहिए था

    अंकुर बनकर उगने के लिए

    एक सुबह जब मैं उठी

    तो मैंने पाया प्रेम और सुख की सब सांत्वनाएँ

    मरी गौरैयों की शक्ल में पूरी सड़क पर बिखरी पड़ी हैं

    इसमें मेरा दोष नहीं था मुझे कम नींद आती है

    इसलिए मैं कभी नींद की अनदेखी कर पाई

    मेरी नींदों ने हमेशा आसन्न आँधियों की अनदेखी की

    इस क़दर धीमी हूँ मैं कि रफ़्तार का कसैला धुआँ

    मेरी काया के भीतर उमसाई धुँध की तरह घुमड़ता है

    कुछ अवसरवादी दीमकें हैं जो मन के अँधेरे कोनों से

    कालिख़ मुँह में दबाए निकलती हैं

    ये शातिर दीमकें मेरी त्वचा की सतह के नीचे

    अँधेरे की लहरदार टहनियाँ गूँथती हैं

    देह की अंदरूनी दीवारों पर अवसाद की कालिख से बना

    अँधेरे का निसंध झुरमुट आबाद है

    चमत्कार यह है कि काजल की कोठरी में

    विराजती है एक बेदाग़ धवल छाया

    जो लगातार मेरी आत्मा होने का दावा करती है

    कई लोग मेरे बारे में इतना सारा सच कहना चाहते थे

    कि सबने आधा-आधा झूठ कहा

    अक्सर ऐसे अगोरती हूँ जीवन

    जैसे राह चलते कोई ज़रा देर के लिए

    सामान सम्हालने की ज़िम्मेदारी दे गया हो

    एक दिन अपने बिस्तर पर

    ऐसा सोना चाहती हूँ कि मैं उसे जीवित लगूँ

    एक दिन शहर की सडकों पर

    बिना देह घूमना चाहती हूँ

    दुःखों की उपज हूँ मैं

    इसलिए उनसे कहो, मुझे नष्ट करने का ख़्वाब भुला दें

    पानी में भले ही प्रकृति से उपजी हर चीज़ सड़ जाए

    काई नहीं सड़ती।

    स्रोत :
    • रचनाकार : लवली गोस्वामी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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