उस दिन ग़ज़ब हो गया बाज़ार में
आश्चर्य, वह निकल आया था बिना मुखौटे का सड़क पर
किसी ने उसे पहचाना नहीं
लोग उसे नहीं उसके मुखौटे को पहचानते थे
साफ़ इंकार कर गए सभी उसे पहचानने से
उसका सच ही अवास्तविक बन गया था
और अवास्तविक को जानना
लोग ज़रूरी नहीं समझते
वह चौंक उठा, घबड़ा गया
वह बार-बार लोगों को समझाता रहा
यही मैं हूँ—असलियत
लेकिन लोग असलियत से परिचित नहीं थे
पहचाचते थे मुखौटे को, इस मुखौटे में भी
नाक, कान, आँखें है, सब कुछ है
उसी से परिचित हैं शहर के सारे लोग
वह घबड़ा गया, उसने फिर ज़ोर लगाया —
देखो, मैं तुम्हें पहचानता हूँ
मैं सब कुछ ठीक-ठीक देख पाता हूँ, वह देखो—
सड़क पर रेल के डब्बों की तरह
भागती बदहवास अंधी ठिगनी भीड़, वह देखो—
रेस्तराँ के सामने जूठन के लिए ठिठकी भूखी
धधकी आँखें, वह देखो—ऊँची इमारतों से बहती
गंदी नालियों में दम घोंटती कैनवास की छतें, वह देखो—
जेबों का मज़ाक उड़ाती दूकानें, वह देखो—असेंबली के
गेट पर जीने की दौड़ में गोली खाती बेबस भीड़
वह देखो वकालतख़ाने में क़ानून की ज़िल्दहीन किताबें
वह देखो अस्पताल के बरामदों पर नक़ली दवाओं से मरते
असली मरीज़, वह देखो—असहाय लिपिस्टिक की सस्ती मुस्कान
बेचती लाल गली, वह देखो—स्मगलरों
ख़ूँख़ारों के अँधेरों को अपनी तिरछी टोपी के नीचे छिपाते
सफ़ेदपोश, वह देखो!
सच कहता हूँ, आज चूँकि मुखौटे के बिना हूँ
इसलिए सच ही कहता हूँ—यक़ीन मानो, मुझे पहचानो।
लेकिन लोगों ने उसे पहचानने से साफ़ इनकार कर दिया,
वह और घबड़ा गया, हैरान रह गया, थका-सा
दौड़ गया घर की ओर
वही मुखौटा लगाए वापस आया
पहचनाने लगे उसे फिर से सारे शहर के लोग
फिर से जानने लगे, मानने लगे
बिना मुखौटे का इस शहर में कोई नहीं है
मुखौटा ही मुखौटे को पहचानता है ठीक-ठीक
इस हादसे के बाद
उसने छोड़ दिया बिना मुखौटे के निकलना
मुखौटे को ही सच मानते हैं
इस शहर के लोग।
- पुस्तक : मैथिली कविताएँ (पृष्ठ 18)
- संपादक : ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद
- रचनाकार : मायानंद मिश्र
- प्रकाशन : पहल प्रकाशन
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