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मैं कितनी बार मर चुका हूँ

main kitni baar mar chuka hoon

कुमार मंगलम

कुमार मंगलम

मैं कितनी बार मर चुका हूँ

कुमार मंगलम

और अधिककुमार मंगलम

    मैं चाहता था

    जब मैं मरूँ

    तो कोई अफ़सोस हो

    लेकिन अफ़सोस

    चाह मृगतृष्णा है

    जिसे पूरा नहीं किया जा सकता है

    तो, मैं कई बार मर चुका हूँ

    कई बार और मरने का मौक़ा आता रहा है

    वक्त-बेवक्त

    हुआ यूँ कि

    पहली बार तब मरा जब फेल हो गया मैट्रिक के इम्तिहान में

    फिर तो जैसे एक सिल-सिला शुरू हो गया

    और मैं तब से मरता रहता हूँ प्रतिपल

    जब मैंने हिंदी पढ़ने का निर्णय सुनाया अपने माँ बाप को

    फिर जब मैं दूसरी बार प्रेम कर रहा था

    और प्रेमिका की थीसिस लिखने से मना कर दिया

    फिर मैं मरता हूँ हर महीने

    जब मैं अपने बाप से पैसे माँग रहा होता हूँ

    निर्लज्ज हो

    फिर मरता रहा नौकरी के लिए धक्के खाता

    सभी तैयारी के बावजूद

    माथे पर एनएफएस का बोर्ड टंगा मिलता

    जैसे अपनी योग्यता हर रोज़ साबित करना होता है

    वैसे हर रोज़ मरना पड़ता है थोड़ा

    जैसे एक हल्की नींद आती है और फिर

    एक झटके में नींद खुल जाती है

    अब मैं मरने के बारे में नहीं सोचता

    ज़िंदा प्रेत मरे मरे क्या फ़र्क़ पड़ता है

    मैं किसी आंदोलन या बदलाव का हिस्सा नहीं हूँ

    मुझे भूख लगती है

    खाना खाता हूँ

    प्यास लगती है

    पानी पीता हूँ

    नींद आती है

    सो जाता हूँ

    मरने का मन करता है

    नहीं मरता हूँ

    क्योंकि ज़िंदा नहीं हूँ

    मरा हुआ आदमी मर कैसे सकता है भला

    मैं भरा हुआ हूँ

    लेकिन कुछ भयानक है भीतर

    जो पनपता है

    और जिसे मैं समाज की नज़रों में

    अपनी असफलताओं के अनंत क़िस्सों के भारी पत्थर से दबाता हूँ

    बिना धार वाले हथियार से अनवरत

    कोई काट रहा है जी को

    तो मैं रोज़ मरता हूँ

    और रोज़ थोड़ा जी उठने की कोशिश करता हूँ

    कि शायद किसी रोज़

    एक विस्फोट हो

    और मैं मरने के लिए नहीं

    जीने के लिए अभिशप्त हो जाऊँ

    वैसे ही जैसे अभी रोज़ मरने के लिए शापित हूँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कुमार मंगलम
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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