यह एक स्वप्न है, एक महामायामय मज़बूत उत्तेजित यातनागृह है,
निशाचर-क्रीडा बाहर, बंधक क्लांत, सतर्क, स्व-निमग्न है, निस्पृह है।
वन-प्रांतर हूँकते, सियाह होती एक-एक तस्वीर, सँवलाती एक-एक पीर,
श्वास-प्रश्वास, लोहे के बंधनों के स्वर, पीड़ा-विद्ध-चेतस-सिद्ध-शरीर।
संपूर्ण होती स्मृति, मनन की नोक तीखी, भीतर करती स्थिर रक्त-चाप,
लावा नसों में बहता, और कभी नदी का किनारा दिखता, चेहरे पर ताप।
विचार-शृंखला बनती जाती, पीड़ा खोती जाती, अनुभव होते और कठोर,
आशा जागती, अँधेरे का सीना भेदकर, अब कि तब आती ही है भोर।
यह दुख-सुख, नित नई उम्र, यह एक ही जनम में कई जनमों की व्यवस्था,
नित नए संघर्ष, नई जीत-हार, नए रंग, नया गुणा-भाग, नई जीवन-अवस्था।
जीवन स्वतःस्फूर्त-घृणा और प्रेम, हिंसा और शांति-बहुरूप अग्नि-प्रेरक वह
आशा-निराशा की गर्तों में, एकांत और सभा में, विषयासक्त, ख़ूबसूरत और दुसह।
सभ्यता की चीख़ें निकलती हैं कई सतहें पार करती, पृथ्वी के क्रोड से, अचानक,
जैसे किसी प्रसूति-गृह के उजाले में चीख़ती है कोई तरुणी जी तोड़ के, अचानक।
लेकिन सुलगते इस भव्य-राज-दरबार में, यह कौन स्वर्ण-आभूषित सिंहासन-आरूढ़,
यह कौन वीभत्स-संसार रचता भीतर ही भीतर? राज्य-रहस्य! क्या वह गूढ़ या मैं मूढ़!
मैं हर विस्तार से चौंकता, हर सूक्ष्मता से हैरान, उसके भीतर एक दर्द-सा क़ैद हूँ,
मैं उसके बाहर उसे देख सकता हूँ, उसके मन की किसी एक सतह का एक भेद हूँ।
ढोंग-धतूरे के पार, रहस्यों का अंत हुआ, आत्मा के परखच्चे उड़े, परम-आत्मा भी भस्म हुई,
उसने फ़ोकस देखा, सेकंड का काँटा, फिर समय या जीवन टटोलने के लिए अपनी नब्ज़ छुई।
इस जगह या उस जगह, इस या उस कारण से, इस पल या उस पल, जीवन का अंत निश्चित है,
पर जंगलों में अकेले भटकते अपनी जड़ों को छूना इस पल सुखद है, मन जगमग है, विस्मित है।
सफ़ेद फूल हैं विशालकाय पवनचक्की के साए में, मई की धूप में खिले हुए पठार पर, शांत
इस पल और उस पल के बीच वह कि दर्द, फ़्रेसनेल लेंटर्न उसकी आँखों की किनार पर, शांत।
महाकार, टेढ़ी-मेढ़ी, आसमान की ओर बढ़ती, लोहा, पत्थर और काँच खाती इमारतें,
सूरज की किरणें अपना रस्ता बनाती हैं इन गलियों में, बचते हुए बहुत ध्यान से।
पानी ज़हरीला है, हवा ज़हरीली, ग़ुलाम ख़ुश हैं, जंतर-मंतर, चक्रव्यूह है, तम-संजाल है,
संत हैं, बेरोज़गार हैं, वेश्याएँ हैं, मज़दूर हैं, मालकिन और उसका पति है, जंजाल है।
इन गुफाओं में, इंटरनेटधारी सीलन छाए तंग कमरों में, अकेली व्याकुल विकृतियाँ मँडराती हैं,
कभी साइबर स्पेस में, कभी रसोई में, कभी बाथरूम में, कभी छत पर आती हैं–जाती हैं।
हँसी और चीख़ें–पड़ोस में होती पार्टी पर सोचती कोई रोशनदान को घूरती है देर तक ग़ुस्से में,
अस्तित्त्व या बेवफ़ाई पर सोचता कोई करता है हस्तमैथुन ग्लानि में, हताशा में, अपलक ग़ुस्से में।
शरीर पर चिपकती जाती धूल और पसीने की तरह, चमकती शीशेदार क्रूर-वीभत्स बनावटें दिन-भर,
वे असंख्य अकेले अजनबी शहर में भटकते, उम्मीद का ग़ुब्बारा रखे अनिश्चित भविष्य की नोंक पर।
वे रोटी और इज़्ज़त की तलाश में, वे बच्चे, उन्मादी जुलूस के निर्माता, वे ज़माने को असह्य
भूखे और अपमानित, भ्रमित, कुंठित, नागरिक, अशिक्षित-अर्धशिक्षित, सरकारों के लिए अवह्य।
मैं उनके बीच, उनका, वे मेरे जन्म का कारण, मेरे दुख का निवारण करने वाले, मेरे अपने,
वे अकेलेपन से घबराए हुए हैं, वे सोचते अन्याय के अंत के बारे में, वे निराले, मेरे अपने।
सोचता हूँ, ऐसी स्थितियों के मध्य, इन संघर्षों बीच, वह सहज महासुख कैसे हुआ जाग्रत,
वह ज़िंदगी का आकर्षण तीखा, वह आशा भरा आकाश, वह विजय या मृत्यु का एकव्रत।
यह निरंतर तेज़ होता संघर्ष, लगातार रास्ता उभरता, अँधेरे के आवर्त तोड़ता मन—
प्रकाशमय होता, सत्य और साहस का धारक, अमीरों का खटका, ग़रीबों का हमवतन।
महासंपत्तिशालियों के झगड़ों में अन्याय, आतंक और अविश्वास की दुनिया बनती जाती है,
पृथ्वी का विनाश रोकने में संपत्तिहीनों की प्रार्थना विफल और हास्यास्पद नज़र आती है।
ऐसे में, कोई ग़ुलाम बाग़ी हो जाता है, गिरोह बनाता है, हमले करता है मालिकों पर ही,
वह जो सितारे-सी चमकती है एक आवाज़ संगीनों के साये में बदले और बदलाव की।
वह जो एक मारी गई थी, जिसने अन्याय के समक्ष समर्पण की राह नहीं ली थी,
वह विद्रोह की प्रतीक थी, उसकी हत्या चुनौती थी, ख़ुबसूरती को खौफ़ की चुनौती।
मैंने वह चुनौती स्वीकार की, आगे बढ़कर, बेझिझक मैंने ख़ुद को आग में झोंक दिया,
मैंने शक्तिशालियों की क्रूरता के विरुद्ध शक्तिहीन के संघर्ष का पक्ष आत्मसात किया।
इस वन में अकेले हिंस्र-पशुओं के मध्य मैं दृढ़ हूँ अपने वचन पर, निश्चित हूँ,
ख़ुश हूँ जीवन की संभावनाओं से, घायल हूँ—लेकिन अविजित हूँ, अशंकित हूँ।
मौन अपनी स्मृतियाँ स्निग्ध करता, अपना पक्ष स्पष्ट, अपने तर्क तेज़,
अपनी विकृतियों का विश्लेषक-संश्लेषक, अपनी बनाई दुनिया का रंगरेज़।
दुखती आँखों को मीचता, अपनी बेड़ियों को माथे से छूता, वह मुस्कुराता है,
जैसे आने वाले तमाम वक़्तों से जाँविदानी का आशीर्वाद पाता है।
वह किसी की बात सुनता है, गुनता है, प्यार से किसी के सलोने हाथ चुमता है,
यातनागृह में पहुँची नई सामग्रियों से अनजान, वह सड़क पर आवारा घूमता है।
रात की गहराई में परिताप चुप, संताप चुप, सैनिकों की पद-चाप चुप,
अँधेरा घूप, अँध-कूप जैसे—पर हँसी, बातचीत, सड़क और कड़क धूप।
क्या करते हैं विद्रोह के सहभागी? क्या मुर्दा ठंडक से भर जाएगा यह देश-काल,
क्या आग और भड़की? नए संघर्ष की दिशा क्या? नई स्थितियों के नए सवाल।
उसने विद्रोह किया है, दर्द सहा है, सच के लिए सूली को स्वीकार किया है,
उसने बिजली के पहाड़ों पर सपने बोए हैं, उसने विद्रोहियों को तैयार किया है।
वह दुनिया को बदल देना चाहता है, किसी भी तरह से, उत्पीड़ितों के पक्ष में,
वह इस अत्याधुनिक यातनागृह में, आदिम सीली गुफा में, इलेक्ट्रिक कक्ष में।
वह अपनी हर साँस, अपनी सारी क्षमता, युद्ध की आग में डालता जाता है,
वह, क्रूरता और घृणा पर ज्ञान और प्रेम की जीत में, विश्वास जताता है।
अपनी मृत्यु पर नहीं, अपने जीवन और सपनों पर, धूप-छाँव की सड़क पर,
वह सोचता है अलग-अलग सीरे पकड़कर, ज़ात, धर्म, भाषा, मनुष्य, रोबोट, ईश्वर।
वे कौन जो हर सुबह, हर रात, दिल कड़ा कर, चौराहे पर ख़ुद का सौदा करते हैं,
वे कौन, जो अक्सर भूखे सो जाते हैं, वे कौन, जो अस्पतालों में बेइलाज मरते हैं।
फिर वे कौन, मेहनत के लुटेरे, मुनाफ़ाख़ोर, ज़माने के ख़ुदा, ईश्वर के अवतार,
वे कौन, अय्याश, हिंसक, महाक्रूर, जिनके लिए विनोद हत्या और बलात्कार।
वे कौन, भयभीत-शंकित, जो सपने देखने वालों की आँखें फोड़ देते हैं,
वे आत्ममुग्ध, तानाशाह, जो अलग सोचने वालों के सिर तोड़ देते हैं।
इस घमासान युद्ध में, बाहर-भीतर के संघर्ष में, अपना पक्ष तैयार करना,
ज़िंदगी को ख़ुबसूरत बनाना कितना कठिन है, कितना कठिन है प्यार करना।
पर डरकर, अपमान सहकर जीने से मौत बेहतर, जो जैसी चुने ज़िंदगी, वैसी जीए!
जैसे बहती है नदी, जैसे उड़ते हैं पंछी, जैसे हँसते हैं बच्चे, जैसे जलते हैं दीए।
अँधेरा ओढ़े बैठे सन्नाटे में, बूटों की बढ़ती आहटें सुनकर, वह सतर्क हो जाता है,
आँखें खोल दीवारें देखता है, बेड़ियों को अपने माथे से लगाता है, ख़ुद को उठाता है।
मैं हूँ, वह है, बूटों की आवाज़ें हैं—हत्या, बलात्कार, प्रतिरोध और शहादत के दरमियान,
इस इलेक्ट्रिक कक्ष में, हिंस्र-पशुओं के सामने, मैं नारा उठाता हूँ इंक़लाब का—सीना तान—
वह उठता है, कुछ देर फ़र्श और सलाख़ों पर ख़ून के धब्बे देखता है, बैठ जाता है,
शायद सपना ही था, बेड़ियाँ हामी भरती हैं, फ़िलहाल, कोई इधर नहीं आता है।
तीखे उजाले में पिघलते हैं हिंस्र-पशु मेरी प्रतीक्षा में, बाक़ी बस सड़क-सी भीत है,
कोई पीड़ा अपने बंधन तोड़ देती है, मूर्छा का अँधेरा है, मुक्ति की अपनी रीत है।
शायद सपना ही था, वह अकेला इस प्रकाशमय यातनागृह में शृंखला-बद्ध निढाल पड़ा है,
वह अकेला अपने पीड़ा-विद्ध-चेतस-सिद्ध शरीर को पहचानता, चिलकते आईने में जड़ा है।
ye ek swapn hai, ek mahamayamay mazbut uttejit yatnagrih hai,
nishachar kriDa bahar, bandhak klant, satark, sw nimagn hai, nisprih hai
wan prantar hunkate, siyah hoti ek ek taswir, sanwlati ek ek peer,
shwas prashwas, lohe ke bandhnon ke swar, piDa widdh chetas siddh sharir
sampurn hoti smriti, manan ki nok tikhi, bhitar karti sthir rakt chap,
lawa nason mein bahta, aur kabhi nadi ka kinara dikhta, chehre par tap
wichar shrinkhla banti jati, piDa khoti jati, anubhaw hote aur kathor,
asha jagti, andhere ka sina bhedakar, ab ki tab aati hi hai bhor
ye dukh sukh, nit nai umr, ye ek hi janam mein kai janmon ki wyawastha,
nit nae sangharsh, nai jeet haar, nae rang, naya guna bhag, nai jiwan awastha
jiwan swatःsphurt ghrina aur prem, hinsa aur shanti bahurup agni prerak wo
asha nirasha ki garton mein, ekant aur sabha mein, wishayasakt, khubsurat aur dusah
sabhyata ki chikhen nikalti hain kai sathen par karti, prithwi ke kroD se, achanak,
jaise kisi prasuti grih ke ujale mein chikhti hai koi tarunai ji toD ke, achanak
lekin sulagte is bhawy raj darbar mein, ye kaun swarn abhushait sinhasan aruDh,
ye kaun wibhats sansar rachta bhitar hi bhitar? rajy rahasy! kya wo gooDh ya main mooDh!
main har wistar se chaunkta, har sukshmata se hairan, uske bhitar ek dard sa qaid hoon,
main uske bahar use dekh sakta hoon, uske man ki kisi ek satah ka ek bhed hoon
Dhong dhature ke par, rahasyon ka ant hua, aatma ke parkhachche uDe, param aatma bhi bhasm hui,
usne focus dekha, sekanD ka kanta, phir samay ya jiwan tatolne ke liye apni nabz chhui
is jagah ya us jagah, is ya us karan se, is pal ya us pal, jiwan ka ant nishchit hai,
par janglon mein akele bhatakte apni jaDon ko chhuna is pal sukhad hai, man jagmag hai, wismit hai
safed phool hain wishalakay pawanchakki ke saye mein, mai ki dhoop mein khile hue pathar par, shant
is pal aur us pal ke beech wo ki dard, fresnel lentarn uski ankhon ki kinar par, shant
mahakar, teDhi meDhi, asman ki or baDhti, loha, patthar aur kanch khati imarten,
suraj ki kirnen apna rasta banati hain in galiyon mein, bachte hue bahut dhyan se
pani zahrila hai, hawa zahrili, ghulam khush hain, jantar mantar, chakrawyuh hai, tam sanjal hai,
sant hain, berozgar hain, weshyayen hain, mazdur hain, malkin aur uska pati hai, janjal hai
in guphaon mein, intarnetdhari silan chhaye tang kamron mein, akeli wyakul wikritiyan manDrati hain,
kabhi cyber space mein, kabhi rasoi mein, kabhi bathrum mein, kabhi chhat par aati hain–jati hain
hansi aur chikhen–paDos mein hoti party par sochti koi roshandan ko ghurti hai der tak ghusse mein,
astittw ya bewafai par sochta koi karta hai hastamaithun glani mein, hatasha mein, aplak ghusse mein
sharir par chipakti jati dhool aur pasine ki tarah, chamakti shishedar kroor wibhats banawten din bhar,
we asankhya akele ajnabi shahr mein bhatakte, ummid ka ghubbara rakhe anishchit bhawishya ki nonk par
we roti aur izzat ki talash mein, we bachche, unmadi julus ke nirmata, we zamane ko asahy
bhukhe aur apmanit, bhramit, kunthit, nagarik, ashikshait ardhashikshait, sarkaron ke liye awahya
main unke beech, unka, we mere janm ka karan, mere dukh ka niwaran karne wale, mere apne,
we akelepan se ghabraye hue hain, we sochte annyaye ke ant ke bare mein, we nirale, mere apne
sochta hoon, aisi sthitiyon ke madhya, in sangharshon beech, wo sahj mahasukh kaise hua jagrat,
wo zindagi ka akarshan tikha, wo aasha bhara akash, wo wijay ya mirtyu ka ekawrat
ye nirantar tez hota sangharsh, lagatar rasta ubharta, andhere ke awart toDta man—
prkashmay hota, saty aur sahas ka dharak, amiron ka khatka, gharibon ka hamawtan
mahasampattishaliyon ke jhagDon mein annyaye, atank aur awishwas ki duniya banti jati hai,
prithwi ka winash rokne mein sampattihinon ki pararthna wiphal aur hasyaspad nazar aati hai
aise mein, koi ghulam baghi ho jata hai, giroh banata hai, hamle karta hai malikon par hi,
wo jo sitare si chamakti hai ek awaz sanginon ke saye mein badle aur badlaw ki
wo jo ek mari gai thi, jisne annyaye ke samaksh samarpan ki rah nahin li thi,
wo widroh ki pratik thi, uski hattya chunauti thi, khubsurti ko khauf ki chunauti
mainne wo chunauti swikar ki, aage baDhkar, bejhijhak mainne khu ko aag mein jhonk diya,
mainne shaktishaliyon ki krurata ke wiruddh shaktihin ke sangharsh ka paksh atmasat kiya
is wan mein akele hinsr pashuon ke madhya main driDh hoon apne wachan par, nishchit hoon,
khush hoon jiwan ki sambhawnaon se, ghayal hun—lekin awijit hoon, ashankit hoon
maun apni smritiyan snigdh karta, apna paksh aspasht, apne tark tez,
apni wikritiyon ka wishleshak sanshleshak, apni banai duniya ka rangrez
dukhti ankhon ko michta, apni beDiyon ko mathe se chhuta, wo muskurata hai,
jaise aane wale tamam waqton se janwidani ka ashirwad pata hai
wo kisi ki baat sunta hai, gunta hai, pyar se kisi ke salone hath chumta hai,
yatnagrih mein pahunchi nai samagriyon se anjan, wo saDak par awara ghumta hai
raat ki gahrai mein paritap chup, santap chup, sainikon ki pad chap chup,
andhera ghoop, andh koop jaise—par hansi, batachit, saDak aur kaDak dhoop
kya karte hain widroh ke sahbhagi? kya murda thanDak se bhar jayega ye desh kal,
kya aag aur bhaDki? nae sangharsh ki disha kya? nai sthitiyon ke nae sawal
usne widroh kiya hai, dard saha hai, sach ke liye suli ko swikar kiya hai,
usne bijli ke pahaDon par sapne boe hain, usne widrohiyon ko taiyar kiya hai
wo duniya ko badal dena chahta hai, kisi bhi tarah se, utpiDiton ke paksh mein,
wo is atyadhunik yatnagrih mein, aadim sili gupha mein, electric kaksh mein
wo apni har sans, apni sari kshamata, yudh ki aag mein Dalta jata hai,
wo, krurata aur ghrina par gyan aur prem ki jeet mein, wishwas jatata hai
apni mirtyu par nahin, apne jiwan aur sapnon par, dhoop chhanw ki saDak par,
wo sochta hai alag alag sire pakaDkar, zat, dharm, bhasha, manushya, robot, ishwar
we kaun jo har subah, har raat, dil kaDa kar, chaurahe par khu ka sauda karte hain,
we kaun, jo aksar bhukhe so jate hain, we kaun, jo asptalon mein beilaj marte hain
phir we kaun, mehnat ke lutere, munafakhor, zamane ke khuda, ishwar ke autar,
we kaun, ayyash, hinsak, mahakrur, jinke liye winod hattya aur balatkar
we kaun, bhaybhit shankit, jo sapne dekhne walon ki ankhen phoD dete hain,
we atmamugdh, tanashah, jo alag sochne walon ke sir toD dete hain
is ghamasan yudh mein, bahar bhitar ke sangharsh mein, apna paksh taiyar karna,
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par Darkar, apman sahkar jine se maut behtar, jo jaisi chune zindagi, waisi jiye!
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is ghamasan yudh mein, bahar bhitar ke sangharsh mein, apna paksh taiyar karna,
zindagi ko khubsurat banana kitna kathin hai, kitna kathin hai pyar karna
par Darkar, apman sahkar jine se maut behtar, jo jaisi chune zindagi, waisi jiye!
jaise bahti hai nadi, jaise uDte hain panchhi, jaise hanste hain bachche, jaise jalte hain diye
andhera oDhe baithe sannate mein, buton ki baDhti ahten sunkar, wo satark ho jata hai,
ankhen khol diwaren dekhta hai, beDiyon ko apne mathe se lagata hai, khu ko uthata hai
main hoon, wo hai, buton ki awazen hain—hattya, balatkar, pratirodh aur shahadat ke darmiyan,
is electric kaksh mein, hinsr pashuon ke samne, main nara uthata hoon inqlab ka—sina tan—
wo uthta hai, kuch der farsh aur salakhon par khoon ke dhabbe dekhta hai, baith jata hai,
shayad sapna hi tha, beDiyan hami bharti hain, filaha, koi idhar nahin aata hai
tikhe ujale mein pighalte hain hinsr pashu meri pratiksha mein, baqi bus saDak si bheet hai,
koi piDa apne bandhan toD deti hai, murchha ka andhera hai, mukti ki apni reet hai
shayad sapna hi tha, wo akela is prkashmay yatnagrih mein shrinkhla baddh niDhal paDa hai,
wo akela apne piDa widdh chetas siddh sharir ko pahchanta, chilakte aine mein jaDa hai
स्रोत :
रचनाकार : उस्मान ख़ान
प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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