वह शैटगे ही था
शहर के बाहर एक टापू
जिस पर बर्फ़ और हवा वैसी ही थी
जैसी शेरब्रुक पर
जहाँ पहली बार इस शहर को मैंने पाया था
यहीं मुझे एलीना मिली थी
सूजी आँखों वाली सुंदर एलीना
उसी ने मुझे बताया था
दुख के अपने आह्लाद हैं
जैसे उसका अपना एक जीवन
और जहाँ इतना दुख हो
और इतनी तरह का
बेहतर है उसी की तरफ़ हो लेना
एक समय बाद वैसे भी दुख दोस्त की तरह
हो जाते हैं
लगते हों भले पहाड़ जैसे
होते हैं वे हम जैसे ही
अपनी आँखों में सच्चे
दूसरों के लिए संदिग्ध
उनके बग़ैर भी ख़ालीपन महसूस होता है
बेचैन कर देने वाला अतार्किक सूखा
एक ख़तरनाक मासूमियत से भरी उन्मादी ऊब
कभी भी ठंडी हवाओं की तरह आकर
अंदर बैठ जाने वाली झुरझुरी पैदा करता
तभी देखो यह जानते हुए
कि किनके साथ सुखी रहा जा सकता था
मैं एरिक के पास गई
उसके साथ घूमती रही वर्षों
उसकी धुँधुआती दुनिया में
जिसमें अनिश्चय कविता हशीश और
अनगिनत दूसरी औरतें थीं
कुछ भी नहीं मेरे लिए...
जो था वह दुख था
जिसे पाने के लिए ही
शायद मैं उस तक गई थी
शैटगे जहाँ एलीना रहती थी...
वहाँ से थोड़ी दूर रेड इंडियंस के
रिहायशी इलाक़े थे रेड इंडियंस के रिजर्व
यानी वे विशाल कारागार
जिनमें वे और उनके पोनी
एक दूसरे को जीते नष्ट हो रहे थे
'यहाँ भी क्या है' एलीना जैसे ख़ुद से पूछती हुई
कहती है ‘दुख' ही तो
तभी तो मैं शैटगे आई रहने
मेरी बग़ल में रहने वाली रोज़ भी शायद
इसीलिए यहाँ आई हो
वह क्राइसलर के लिए काम करती है
आधी पागल आधी अकेलेपन के कारण रुग्ण
लेकिन उसी से मेरी बनती है
उसके पागलपन में जो सच्चाई है
वह कहीं और नहीं बच सकती थी
जैसे मनुष्यों से सच्चा प्यार करना
किसी ग़रीब के लिए फ़िक्र करना
अब पागलपन ही समझा जाता है
इसलिए शून्य से तीस डिग्री नीचे तापमान वाला यह टापू
उसे जलता हुआ दिखता है
इस कड़ाके की ठंड के बावजूद
वह नंगे पाँव बर्फ़ पर चलकर घर-घर जाती है
बौद्ध धर्म का प्रचार करती
शांति का उपदेश देती है—‘दुख अवश्यंभावी है
जब तक आसक्ति है यानी यह संसार'
लोग उस पर दया कर अपने दरवाज़े खोलते हैं
कुछ पैसे और खाने-पीने की चीज़ें थमा देते हैं
सोचकर वह भिक्षुणी है जिससे संसार छूट गया है
और वह भी सचमुच बौद्ध है
जो मिलता है स्वीकार करती है
फिर रेड इंडियंस के रिज़र्व में जाकर
बाँट आती है
उनके बच्चों और मवेशियों से घंटों खेलती है
और हँसती है अपने इस संसार पर
जिसमें वह रहती है
अक्सर ये लोग भी उसे ख़ाली हाथ नहीं लौटाते
अपनी उदारता में प्रवीण
वे अक्सर उसे हाथ से बुने गरम मोज़े और
दस्ताने भेंट करते हैं
जिन्हें लाकर वह
हम जैसों के बीच फिर बाँट देती है
उनके सेब और नाशपाती जिन पर
उनके नाख़ूनों के निशान होते हैं
जैसे उन्हें टटोलकर ब्रह्मांड का रहस्य
जाना गया हो
ख़ासकर मुझे थमा जाती है
एक दिन एलीना मुझे ले गई
शैटगे के ऐसे रेस्त्राँ में
जहाँ उसका कहना है यहाँ की सबसे स्वादिष्ट
कॉफ़ी और गाजर की मफ़िन मिलती है
यहाँ एरिक भी आता है
अपनी कविताओं अनिश्चयों और औरतों के साथ
कभी-कभी कोई बेहद सुंदर लड़की साथ होती है
जिसे देख लगता है सौंदर्य भी
दुख के उत्तुंग शिखर पर ही स्थित है
मृत्यु से बस छलाँग भर की दूरी पर
सब कुछ जानती हुई फिर क्यों बढ़ी
ख़ुद एलीना उस पर्वत की तरफ़ मैंने सोचा
जहाँ कविता और नश्वर देह
एक दूसरे से यूँ उलझे थे
तभी आँखों से वह इशारा करती है
देखो रेस्त्राँ के उस कोने में
कैसे प्रेम और मृत्यु एक दूसरे के सामने बैठे हैं
यानी रिज़वाना और एरिक
एरिक की अलसायी आँखों में सचमुच
एक ऐसा विराग तैर रहा था
जिसमें जीवन के लिए लापरवाही और तिरस्कार था
हवा बर्फ़ और उस सुंदर देह के लिए भी
जो ठीक उसके सामने थी उसमें मिल जाने को आतुर
पूरी तरह पराजित
लेकिन एक ठहरा हुआ धीरज
जैसे वह उसके धुआँ-धुआँ संसार में
हशीश से भी ज़्यादा विश्वसनीय सच्चाई का
इंतज़ार करता हो
मगर किसका?
एलीना जैसे अपने होंठों से नहीं
डबडबाई आँखों से कहती हो...
एक यात्रा के ख़त्म होने का
एक सुंदर मौत का जो मुझसे और
रिज़वाना से भी ज़्यादा मोहक हो
मगर क्यों... एक बेचैनी मुझे बेधने लगी
‘क्यों नहीं मगर’ पूछती है मुझसे ही एलीना
क्या है जो दुख से ज़्यादा स्थायी है
ज़्यादा सहिष्णु संवेदनशील साथ देने वाला
क्यों न वह चाहे उसे जो है
दुख का अंतिम पड़ाव मृत्यु
जीवन तो ऊँघती हुई ऊब है उसके लिए अब
एक छल जिसमें जितना डूबो
उतनी ही बढ़ती जाती है उसकी गहराई
जितना चाहो उतनी ही रेत
भुरभुरी उदासी हाथ आती है
एरिक सब कुछ समझ चुका है
तभी स्थितप्रज्ञ वह बीतने दे रहा है ख़ुद को
जैसे अमरीका की असली नियति हो वह
न उसके माँ बाप याद करने लायक़
न कोई घर जिसे वह कहे अपना
और अमरीका तो रेड इंडियंस का घर है
वह इसे जानता है
इसलिए वह रहता है अपने
धुएँ हशीश और कविता में
इंतज़ार करता एक सहनीय अंत का
एलीना की इस तरफ़दारी में
एरिक के लिए उसका छुपा प्रेम झलका पहली बार
प्रेम में मृत्यु के लिए पहली ही बार
ऐसा सच्चा निवेदन देखा था
फिर भी यह सब कितना गड्डमड्ड है
सब कुछ एक ख़तरनाक ढलान पर जैसे
किसी तरह ठहरा हुआ
बर्फ़ से ढँका यह द्वीप
इतना धवल उज्ज्वल होते हुए भी कितना रक्ताक्त है
लाल कत्थई नीला
क्यों जिम की जगह एरिक है
सुख की जगह दुख एलीना के लिए
क्यों शेरब्रुक की तरह नहीं हैं दूसरी जगहें यहाँ की
जहाँ एक दूसरे को चूमते हैं प्रेमी
बाँहों में डाले बाँहें चले जाते हैं
किसी अनंत में
बेफ़िक्री की सुनहरी सुबह की तरफ़
या फिर शेरब्रुक सुनहरा भ्रम है मेरा अपना
और वे चुंबन जीवन के अंतिम उच्छ्वास
गहरी साँस लेती हुई जैसे किसी नींद से जगी हो
एलीना कहती है
सिर्फ़ दुख अनंत है
प्रेम का अंत होना ही है किसी शैटगे में
किसी पोनी के खुरों के ठीक नीचे
शराब में डूबी किन्हीं आँखों में
जिनमें अपने देश का सपना अब भी मरा नहीं है
जहाँ अब अमरीका है विस्थापित किए हुए
एक दूसरे देश को
विशाल फैला हुआ था जो कभी
उनके जंगली भैंसों की चरागाह
आखेट स्थल उनके बच्चों का
स्वच्छंदता का अंतिम फैलाव था जो
मनुष्यता का...
वह शैटगे है जहाँ हम अभी हैं
यह सिर्फ़ एक जगह नहीं उत्तर अमरीका में
एक द्वीप बर्फ़ से ढँका
घिरा हुआ बर्फ़ की नदी से
यह एक पड़ाव है जीवन का
जिसे यातनाओं ने रचा है
जहाँ ख़ुद को नष्ट करना जीने का एक तरीक़ा है
जिंदगी जहाँ रिसती हुई बर्फ़ में मिलती जाती है
और हम जो यहाँ रहते हैं
जिनके न पोनी हैं न बच्चे
जिनको नहीं बचा सकती रोज़ भी
अपने बौद्ध संदेश से
जिनको नहीं आता ऊनी मोज़े और दस्ताने बुनना
जैसे नहीं आता यह जीवन जीना ही
सोचो उनके लिए शैटगे कैसा माक़ूल पड़ाव है
जीवन झाड़ देने का
और उधर पश्चिम की तरफ़
जहाँ एक छोटा-सा घर दिखता है
पेड़ों पत्तों के बीच भी कितना अकेला
ओढ़े कैसा सूनापन
उधर एलिस रहती है
अपने दो अपंग बच्चों और कई बिल्लियों के साथ
वह भी हमारी ही तरह दुख को समझती है
इसीलिए वह उसे अपने बाहर-भीतर जीने देती है
कह सकते हैं वह नहीं, दुख उसे जीता है
कभी-कभी ही भीतर उसके अराजकता लौटती है
छिन्न-भिन्न करती हुई उस कठोर संतुलन को
जो उसका जीवन है
जब चाहकर भी सुख के लिए विलाप करना
वह बंद नहीं कर पाती
नहीं त्याग पाती कामना
प्रेम, सौंदर्य और एरिक को पाने की
जो उसका पहला प्रेमी था
जो अब नहीं दे सकता किसी को कुछ भी
न रेड इंडियंस को अमरीका
न सौंदर्य को प्रेम
अपनी ऊब और उदासी के सिवा एक शिथिल
देह ही बची है उसके पास
वह भी हशीश और कविता के लिए
जिसकी जरूरत नहीं अमरीका को
यथार्थ का यह कैसा
अपना ही दुःस्वप्न है
यानी एलीना का
जिसमें उसका एरिक
समय की आँखों में लुप्त हो चुका है
बचे रह गए हैं बस रेड इंडियंस
मूल निवासी धरती के इस हिस्से के
जिन्हें उनके आँसू बचाते रहे हैं
रखते रहे हैं जो सपनीली आँखों को तर
स्वप्न और दुःस्वप्न का फ़ासला आख़िर
एक दो रातों का ही होता है
हो सकता है एक रात एरिक लौटे
एलीना के सपनों में
प्रेम और सच्चाई पर बातें करे
जिसमें से पूरी तरह ग़ायब हो
हशीश और अमेरिका
सारा विध्वंस सारी हिंसा
wo shaitge hi tha
shahr ke bahar ek tapu
jis par barf aur hawa waisi hi thi
jaisi sherabruk par
jahan pahli bar is shahr ko mainne paya tha
yahin mujhe elina mili thi
suji ankhon wali sundar elina
usi ne mujhe bataya tha
dukh ke apne ahlad hain
jaise uska apna ek jiwan
aur jahan itna dukh ho
aur itni tarah ka
behtar hai usi ki taraf ho lena
ek samay baad waise bhi dukh dost ki tarah
ho jate hain
lagte hon bhale pahaD jaise
hote hain we hum jaise hi
apni ankhon mein sachche
dusron ke liye sandigdh
unke baghair bhi khalipan mahsus hota hai
bechain kar dene wala atarkik sukha
ek khatarnak masumiyat se bhari unmadi ub
kabhi bhi thanDi hawaon ki tarah aakar
andar baith jane wali jhurjhuri paida karta
tabhi dekho ye jante hue
ki kinke sath sukhi raha ja sakta tha
main erik ke pas gai
uske sath ghumti rahi warshon
uski dhundhuati duniya mein
jismen anishchay kawita hashish aur
anaginat dusri aurten theen
kuch bhi nahin mere liye
jo tha wo dukh tha
jise pane ke liye hi
shayad main us tak gai thi
shaitge jahan elina rahti thi
wahan se thoDi door red inDiyans ke
rihayshi ilaqe the red inDiyans ke rijarw
yani we wishal karagar
jinmen we aur unke poni
ek dusre ko jite nasht ho rahe the
yahan bhi kya hai elina jaise khu se puchhti hui
kahti hai ‘dukh hi to
tabhi to main shaitge i rahne
meri baghal mein rahne wali roz bhi shayad
isiliye yahan i ho
wo kraislar ke liye kaam karti hai
adhi pagal aadhi akelepan ke karan rugn
lekin usi se meri banti hai
uske pagalpan mein jo sachchai hai
wo kahin aur nahin bach sakti thi
jaise manushyon se sachcha pyar karna
kisi gharib ke liye fir karna
ab pagalpan hi samjha jata hai
isliye shunya se tees degre niche tapaman wala ye tapu
use jalta hua dikhta hai
is kaDake ki thanD ke bawjud
wo nange panw barf par chalkar ghar ghar jati hai
bauddh dharm ka parchar karti
shanti ka updesh deti hai—‘dukh awashyambhawi hai
jab tak asakti hai yani ye sansar
log us par daya kar apne darwaze kholte hain
kuch paise aur khane pine ki chizen thama dete hain
sochkar wo bhikshuni hai jisse sansar chhoot gaya hai
aur wo bhi sachmuch bauddh hai
jo milta hai swikar karti hai
phir red inDiyans ke reserw mein jakar
bant aati hai
unke bachchon aur maweshiyon se ghanton khelti hai
aur hansti hai apne is sansar par
jismen wo rahti hai
aksar ye log bhi use khali hath nahin lautate
apni udarta mein prween
we aksar use hath se bune garam moze aur
dastane bhent karte hain
jinhen lakar wo
hum jaison ke beech phir bant deti hai
unke seb aur nashpati jin par
unke nakhunon ke nishan hote hain
jaise unhen tatolkar brahmanD ka rahasy
jana gaya ho
khaskar mujhe thama jati hai
ek din elina mujhe le gai
shaitge ke aise restran mein
jahan uska kahna hai yahan ki sabse swadisht
coffe aur gajar ki mafin milti hai
yahan erik bhi aata hai
apni kawitaon anishchyon aur aurton ke sath
kabhi kabhi koi behad sundar laDki sath hoti hai
jise dekh lagta hai saundarya bhi
dukh ke uttung sikhar par hi sthit hai
mirtyu se bus chhalang bhar ki duri par
sab kuch janti hui phir kyon baDhi
khu elina us parwat ki taraf mainne socha
jahan kawita aur nashwar deh
ek dusre se yoon uljhe the
tabhi ankhon se wo ishara karti hai
dekho restran ke us kone mein
kaise prem aur mirtyu ek dusre ke samne baithe hain
yani rizwana aur erik
erik ki alsayi ankhon mein sachmuch
ek aisa wirag tair raha tha
jismen jiwan ke liye laparwahi aur tiraskar tha
hawa barf aur us sundar deh ke liye bhi
jo theek uske samne thi usmen mil jane ko aatur
puri tarah parajit
lekin ek thahra hua dhiraj
jaise wo uske dhuan dhuan sansar mein
hashish se bhi zyada wishwasniy sachchai ka
intzar karta ho
magar kiska?
elina jaise apne honthon se nahin
DabDabai ankhon se kahti ho
ek yatra ke khatm hone ka
ek sundar maut ka jo mujhse aur
rizwana se bhi zyada mohak ho
magar kyon ek bechaini mujhe bedhne lagi
‘kyon nahin magar’ puchhti hai mujhse hi elina
kya hai jo dukh se zyada sthayi hai
zyada sahishnau sanwedanshil sath dene wala
kyon na wo chahe use jo hai
dukh ka antim paDaw mirtyu
jiwan to unghti hui ub hai uske liye ab
ek chhal jismen jitna Dubo
utni hi baDhti jati hai uski gahrai
jitna chaho utni hi ret
bhurabhuri udasi hath aati hai
erik sab kuch samajh chuka hai
tabhi sthitapragya wo bitne de raha hai khu ko
jaise america ki asli niyti ho wo
na uske man bap yaad karne layaq
na koi ghar jise wo kahe apna
aur america to red inDiyans ka ghar hai
wo ise janta hai
isliye wo rahta hai apne
dhuen hashish aur kawita mein
intzar karta ek sahniy ant ka
elina ki is tarafadar mein
erik ke liye uska chhupa prem jhalka pahli bar
prem mein mirtyu ke liye pahli hi bar
aisa sachcha niwedan dekha tha
phir bhi ye sab kitna gaDDmaDD hai
sab kuch ek khatarnak Dhalan par jaise
kisi tarah thahra hua
barf se Dhanka ye dweep
itna dhawal ujjwal hote hue bhi kitna raktakt hai
lal katthai nila
kyon jym ki jagah erik hai
sukh ki jagah dukh elina ke liye
kyon sherabruk ki tarah nahin hain dusri jaghen yahan ki
jahan ek dusre ko chumte hain premi
banhon mein Dale banhen chale jate hain
kisi anant mein
befiri ki sunahri subah ki taraf
ya phir sherabruk sunahra bhram hai mera apna
aur we chumban jiwan ke antim uchchhwas
gahri sans leti hui jaise kisi neend se jagi ho
elina kahti hai
sirf dukh anant hai
prem ka ant hona hi hai kisi shaitge mein
kisi poni ke khuron ke theek niche
sharab mein Dubi kinhin ankhon mein
jinmen apne desh ka sapna ab bhi mara nahin hai
jahan ab america hai wisthapit kiye hue
ek dusre desh ko
wishal phaila hua tha jo kabhi
unke jangli bhainson ki charagah
akhet sthal unke bachchon ka
swachchhandta ka antim phailaw tha jo
manushyata ka
wo shaitge hai jahan hum abhi hain
ye sirf ek jagah nahin uttar america mein
ek dweep barf se Dhanka
ghira hua barf ki nadi se
ye ek paDaw hai jiwan ka
jise yatnaon ne racha hai
jahan khu ko nasht karna jine ka ek tariqa hai
jindgi jahan risti hui barf mein milti jati hai
aur hum jo yahan rahte hain
jinke na poni hain na bachche
jinko nahin bacha sakti roz bhi
apne bauddh sandesh se
jinko nahin aata uni moze aur dastane bunna
jaise nahin aata ye jiwan jina hi
socho unke liye shaitge kaisa maqul paDaw hai
jiwan jhaD dene ka
aur udhar pashchim ki taraf
jahan ek chhota sa ghar dikhta hai
peDon patton ke beech bhi kitna akela
oDhe kaisa sunapan
udhar elis rahti hai
apne do apang bachchon aur kai billiyon ke sath
wo bhi hamari hi tarah dukh ko samajhti hai
isiliye wo use apne bahar bhitar jine deti hai
kah sakte hain wo nahin, dukh use jita hai
kabhi kabhi hi bhitar uske arajakta lautti hai
chhinn bhinn karti hui us kathor santulan ko
jo uska jiwan hai
jab chahkar bhi sukh ke liye wilap karna
wo band nahin kar pati
nahin tyag pati kamna
prem, saundarya aur erik ko pane ki
jo uska pahla premi tha
jo ab nahin de sakta kisi ko kuch bhi
na red inDiyans ko america
na saundarya ko prem
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wo bhi hashish aur kawita ke liye
jiski jarurat nahin america ko
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apna hi duःswapn hai
yani elina ka
jismen uska erik
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bache rah gaye hain bus red inDiyans
mool niwasi dharti ke is hisse ke
jinhen unke ansu bachate rahe hain
rakhte rahe hain jo sapnili ankhon ko tar
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ho sakta hai ek raat erik laute
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prem aur sachchai par baten kare
jismen se puri tarah ghayab ho
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jahan uska kahna hai yahan ki sabse swadisht
coffe aur gajar ki mafin milti hai
yahan erik bhi aata hai
apni kawitaon anishchyon aur aurton ke sath
kabhi kabhi koi behad sundar laDki sath hoti hai
jise dekh lagta hai saundarya bhi
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wo ise janta hai
isliye wo rahta hai apne
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lal katthai nila
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jahan ek dusre ko chumte hain premi
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ya phir sherabruk sunahra bhram hai mera apna
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gahri sans leti hui jaise kisi neend se jagi ho
elina kahti hai
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kisi poni ke khuron ke theek niche
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jinmen apne desh ka sapna ab bhi mara nahin hai
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ek dusre desh ko
wishal phaila hua tha jo kabhi
unke jangli bhainson ki charagah
akhet sthal unke bachchon ka
swachchhandta ka antim phailaw tha jo
manushyata ka
wo shaitge hai jahan hum abhi hain
ye sirf ek jagah nahin uttar america mein
ek dweep barf se Dhanka
ghira hua barf ki nadi se
ye ek paDaw hai jiwan ka
jise yatnaon ne racha hai
jahan khu ko nasht karna jine ka ek tariqa hai
jindgi jahan risti hui barf mein milti jati hai
aur hum jo yahan rahte hain
jinke na poni hain na bachche
jinko nahin bacha sakti roz bhi
apne bauddh sandesh se
jinko nahin aata uni moze aur dastane bunna
jaise nahin aata ye jiwan jina hi
socho unke liye shaitge kaisa maqul paDaw hai
jiwan jhaD dene ka
aur udhar pashchim ki taraf
jahan ek chhota sa ghar dikhta hai
peDon patton ke beech bhi kitna akela
oDhe kaisa sunapan
udhar elis rahti hai
apne do apang bachchon aur kai billiyon ke sath
wo bhi hamari hi tarah dukh ko samajhti hai
isiliye wo use apne bahar bhitar jine deti hai
kah sakte hain wo nahin, dukh use jita hai
kabhi kabhi hi bhitar uske arajakta lautti hai
chhinn bhinn karti hui us kathor santulan ko
jo uska jiwan hai
jab chahkar bhi sukh ke liye wilap karna
wo band nahin kar pati
nahin tyag pati kamna
prem, saundarya aur erik ko pane ki
jo uska pahla premi tha
jo ab nahin de sakta kisi ko kuch bhi
na red inDiyans ko america
na saundarya ko prem
apni ub aur udasi ke siwa ek shithil
deh hi bachi hai uske pas
wo bhi hashish aur kawita ke liye
jiski jarurat nahin america ko
yatharth ka ye kaisa
apna hi duःswapn hai
yani elina ka
jismen uska erik
samay ki ankhon mein lupt ho chuka hai
bache rah gaye hain bus red inDiyans
mool niwasi dharti ke is hisse ke
jinhen unke ansu bachate rahe hain
rakhte rahe hain jo sapnili ankhon ko tar
swapn aur duःswapn ka fasla akhir
ek do raton ka hi hota hai
ho sakta hai ek raat erik laute
elina ke sapnon mein
prem aur sachchai par baten kare
jismen se puri tarah ghayab ho
hashish aur amerika
sara widhwans sari hinsa
स्रोत :
पुस्तक : स्वप्न समय (पृष्ठ 74)
रचनाकार : सविता सिंह
प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
संस्करण : 2013
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