लगभग सुखमय!
lagbhag sukhmay!
ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म 'आनंद' के लिए
दु:ख की निश्चितता के बाद सब कुछ कितना सरल हो जाता!
इतना सरल कि—लगभग, सुंदर!—लगभग सुखमय!
संध्या के आलोक में समुद्र का किनारा ज़री वाले आँचल की तरह झिलमिलाता।
ऐसा लगता कि यह इस जीवन की अंतिम आतिशबाज़ी है!
तब एक बेहलचल-सी तस्क़ीन दिल में लहर की तरह उमग आती।
एक बिंदु के बाद खोने को कुछ शेष नहीं रह जाता। उस बिंदु तक पहुँचना बहुत कठिन था। उस बिंदु के बाद सब कुछ सरल—लगभग, सुघड़!
जैसे कोई भर दुपहरी सो रहा हो और दिपदिपाती संध्या में जगा हो। भीतर से रिक्त और हलका। दु:ख से परे। और सुख के लिए तो असंभव!
हृदय में रत्न-मंजूषा लेकर जीने वाला मन, जिसे स्वयं पर यह अभिमान कि मेरे पास छुपाने को कितना कुछ है, जबकि तुम तो कितने उघड़े!
यहाँ—इस संसार में मेले सजाने वाला वही सपनों का राही था, जिसे एक दिन अकेला जाना था।
गली के मोड़ तक भी जो छोड़ने नहीं आता, आता तो उससे आगे साथ नहीं जाता, उसके लिए भी क्या रोना, बाबू मोशाय!
मुझको देखो, अपने हाथों अपने जीवन के तमाम रंगीन ग़ुब्बारे उड़ाकर भी कहाँ रोया!
- रचनाकार : सुशोभित
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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