लौटते हैं अपने युवा दिनों की तरफ़
lautte hain apne yuwa dinon ki taraf
चलो एक खेल खेलते हैं
लौटते हैं अपने युवा दिनों की तरफ़
और चकमा देने वाली चीज़ों को जमा करते हैं
इस तरह कि उन्हें अपने होने पर
शर्म से लाल न होना पड़े
नापते हैं हॉस्टल से तुम्हारे घर की दूरी
और सड़क को क़तई पता नहीं लगने देते हैं कि हम
उसकी स्मृतियों में सूरज के नखरे और चंद्रमा के पैरों की आहट
इस तरह रख रहे हैं कि कोई निशान तक दिखाई न दे
सपनों की चहलक़दमी के
यूँ ही नाख़ूनों को कुतरने वाली आदत
और ग़ुस्से में होंठों को काटने का तुम्हारा सलीक़ा
या यूँ ही कॉपियों के पन्ने फाड़ने की तुम्हारी अकबकाहट
बेवजह आकाश से बतियाने की सनक
सब कुछ पुनः दुहराते हैं
जैसे वे पहली बार घटित हो रही हैं
हमारे जीवन में जो अब
सयानेपन की सजा भुगत रही हैं
वह मुलायम-सी सिहरन जो अब खुरदरी हो गई है
दुख और सुख को माँजते-माँजते
अपनी उँगलियों में पुनः आविष्कृत करते हैं
किसी बच्चे के पहले आविष्कार की ख़ुशी की तरह
तुम्हारे पेट की त्वचा से मिलान करते हुए गुलाब की दहकती ख़ुशबू में
ढूँढ़ते हैं वह अल्हड़ता जो रूमानी कविता की आत्मा है
बर्दाश्त करते हैं ऐसी ही की गई ऊलजुलूल हरकतें
गुलशन नंदा और रानू के उपन्यास
जो प्रेमचंद से कहीं ज़्यादा अच्छे लगते थे
पुनः पढ़ते हैं अपनी मूर्खता को
जायज़ ठहराने के लिए
चलो एक खेल खेलते हैं
लौटते हैं अपने युवा दिनों की तरफ़
डायरी के पन्नों में लिखी गईं वे रूमानी इबारतें
जो बड़ी मुश्किल से जमा की थीं हमने
और जिसे दुहराते थे स्कूल में की गई प्रार्थना की तरह
उन हर्फ़ों पर लगी धूल को झाड़ते हैं
वे इबारतें जो हमारी उँगलियों की
काली पड़ती झुर्रियों की स्मृतियों में
अब भी जीवित हैं
चस्पाँ करते हैं अपनी इंद्रियों के दरवाज़े पर
शायद वह पेड़ फिर फेंकने लगे खपच्चियाँ
जिसे हमने युवा दिनों में लगाया था
अपनी मुहब्बत की निगरानी करने के लिए
शमशाद बेगम जैसी आवाज़ की खनक वाले मौसम में
उसके उत्सव में
चलो चकमा देने वाली चीज़ों को पुनः जमा करते हैं
अपने आस-पास को शर्म से लाल करने के लिए
- रचनाकार : महेश आलोक
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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