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अशलील साहित्य के बारे में एक विचार

ashlil sahitya ke bare mein ek vichar

अनुवाद : सुरेश सलिल

वीस्वावा षिम्बोर्स्का

वीस्वावा षिम्बोर्स्का

अशलील साहित्य के बारे में एक विचार

वीस्वावा षिम्बोर्स्का

और अधिकवीस्वावा षिम्बोर्स्का

    विचार से बदतर और कोई व्यभिचार नहीं है,

    वैसे ही फैलती है यह लंपटता, जैसे सजावटी पौधों के लिए

    आरक्षित क्यारी में, हवा में उड़कर आई खर-पतवार।

    सोचने-विचारने वालों के लिए कोई चीज़ पवित्र नहीं।

    हर चीज़ को बेहयाई के साथ नाम लेकर पुकारना,

    विकृत विश्लेषण, फ़ोहश संश्लेषण,

    नंगे तथ्यों की अंधाधुंध लंपट तलाश,

    संवेदनशील विषयों का वासना-भरा दुलार,

    बहस-मुबाहसे की छिड़ी घमासान

    और उसके संगीत में मस्त उनके कान।

    दिन के उजाले में, या रात के अँधेरे में

    जोड़ों, त्रिकोणों और घेरों में वे मिलते हैं।

    जोड़ों की उम्र और लिंग ग़ैर-ज़रूरी है।

    उनकी आँखें चमकती हुई, उनके कपोल उत्तेजना से छलकते हुए।

    दोस्त ही दोस्तों को बिगाड़ते हुए

    बदचलन बेटियाँ अपने बापों को ख़राब करती हुईं

    भाई अपनी छोटी बहन की दलाली करता हुआ।

    रंगीन रिसालों में से झाँकते गुलाबी उरोजों के मुक़ाबले

    ज्ञान के वर्जित वृक्ष के फल को वे प्रमुखता देते हैं—

    जो कि सरल बुद्धि लोगों के लिए स्वाभाविक तौर पर

    अश्लील साहित्य है।

    उनमें उत्तेजना का संचार करने वाली किताबों में तस्वीरें नहीं होतीं,

    उनका एकमात्र आनंद अँगूठे के धब्बों या

    रंगीन पेंसिलों के निशानों से अँटे पड़े जुमले हैं।

    कैसे हैरतअंगेज़ आसनों में

    कैसी लंपट सादगी के साथ

    एक दिमाग़ दूसरे दिमाग़ में बीज डाल देता है।

    कामसूत्र तक में उन आसनों का उल्लेख नहीं है।

    उनके इन अभिसारों के दौरान ताक़त की दवा सिर्फ चाय होती है।

    लोग कुर्सियों पर जमे हुए, उनके होंठ चलते हुए

    उनकी टाँगें कैंची की तरह काटती हुई,

    लिहाज़ों एक पैर ज़मीन से छूता हुआ

    और दूसरा अधर में झूलता हुआ।

    सिर्फ़ कभी-कभार उनमें से कोई उठकर खड़ा होता है

    खिड़की तक जाता है

    और पर्दों की फाँक से

    सड़क को ताकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रोशनी की खिड़कियाँ (पृष्ठ 323)
    • रचनाकार : वीस्वावा षिम्बोर्स्का
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2003

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