स्वयं से संवाद करते हुए
बिना किसी भूमिका के और बिना कोई
सूत्र जाने मन चाहने लगता
बरबस यूँ ही कि
और कुछ नहीं तो इतनी
मोहलत हो मेरे पास
कि चौंधियाते आवरण में लिपटी मिथ्या को परे रख
किसी व्यग्र, कातर, निर्दोष आँखों में लिखा 'सच' यत्नपूर्वक पढ़ने की
चेष्टा कर सकूँ
भले उसकी भाषा एवं लिपि पूर्णतः अपरिचित रहे
कभी हो यूँ भी कि अपने ही बनाए हुए
तमाम ज़रूरी, ग़ैर-ज़रूरी कामों की फ़ेहरिस्त मध्य
बस इतना-सा ही मुझे स्मरण हो आए
कि कल जिस बात को कहने से ज़ुबान ने
अनधिगत हिचकिचाहट ओढ़ ली थी उसकी...
वो कंठ में अटकी बात समय रहते सुन पाऊँ
हाँ, इतनी भर फ़ुर्सत रहे!
इल्म रहे कि मसरूफ़ियत
अपनी जगह है सबकी
बेवक्त फ़ोन करना महज़
मसखरापन नहीं भी हो...
शायद लाज़िम-सी ही बात रही हो कोई...
मिस्ड कॉल देखकर पूछने में देर न लगे
कि तुम ठीक हो न!
इतना तो वक्त रख सकूँ अपने पास...
किसी आघात पहुँचे मन का भेद
कभी द्रष्टव्य हो जाए अनायास ही
कहीं ऐसा न हो कि कहानी गढ़ने का चाव उमगे स्वयं को चेताते हुए समय ये
अंतर्मन में प्रयास जगे कि
कामना उठी होगी उस खंडित हृदय को
उस घड़ी एक अदद स्नेहिल स्पर्श की
तो आतुरता न दिखे हाथ छुड़ाकर जाने की
अपितु आकुलता दिखे थोड़ी देर पास बैठने की और सहजता पूर्वक उस व्यथा को महसूसने की!
औचक ही अवकाश जो मिले किसी दिन
तो कविता लिखने से ज़्यादा ग़रज़
उस किशोर मन को यह समझाने की हो
जिसे सबसे नाराज़गी है
कहूँ उससे कि रूष्ट होने से
अच्छा है क्षमा करना
शुक्रिया कहना और साझा करना
चाहे वो दुःख हो या सुख...
ये इस संसार को सुंदर
बनाने के अवयव हैं
कहूँ कि इस जग को अवहेलना की नहीं
थोड़े और अधिक प्रेम की आवश्यकता है!
- रचनाकार : भावना झा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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