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हाट की बात

hat ki baat

विनय सौरभ

विनय सौरभ

हाट की बात

विनय सौरभ

और अधिकविनय सौरभ

    हाट जाना मुझे मेरे पिता ने सिखाया

    एकदम बचपन की बात बताता हूँ

    वह रविवार की सुबह मुझे अपने साथ

    कर लेते थे

    मै झोला अपनी नन्हीं मुट्ठियों में भींचे

    उनकी उँगली थामे होता था

    मैंने उनके साथ कई शहर बदले

    पर हाट जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा

    अच्छे क़िस्म के आलू और दूसरी सब्ज़ियों की पहचान

    मैंने एकदम छोटी उम्र में कर ली थी

    क्या आपको पता है, बैगन हल्के अच्छे होते हैं?

    मछलियों के फेफड़े से उनके ताज़ेपन की पहचान होती है?

    सोलह बरस पहले,

    जिस दिन आख़िरी साँस ली पिता ने

    वह रविवार का दिन था

    और मैं अपने गाँव की हाट गया था

    तीस-बत्तीस का हो गया हूँ

    हफ़्ते की हाट जाना मुझे आज भी अच्छा लगता है

    हरी सब्ज़ियों से भरे खोमचे

    मुझे जीवन में देखे गए सुंदर दृश्यों में से लगते हैं

    पिंजरों में प्यारे कबूतर सिर निकालकर देखते हैं

    हाट आए लोगों को

    बिक जाने के बाद उनका क्या होगा,

    थोड़े ही जानते हैं

    अजीबोग़रीब शक्ल के पगड़ी वाले

    जो अपने को परदेशी बताते हैं

    बेचते हैं कई क़िस्मों के तेल और जड़ी-बूटियाँ

    मौक़ा ताड़कर लोगों को रातों की हताशा

    और बेचारगी का निदान सुझाते हैं

    कहते हैं—

    सांडे का तेल लगाओ,

    सब ठीक हो जावेगा

    बीवी ख़ुश हो जावेगी

    बच्चों की आमद देखकर कहते हैं—

    बाबू साब, तुम्हारी उमर नहीं हुई

    ये सब सुनने की, चल खिसक ले!

    स्रोत :
    • रचनाकार : विनय सौरभ
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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