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हमारे शहर की गलियाँ

hamare shahr ki galiyan

राजेश जोशी

राजेश जोशी

हमारे शहर की गलियाँ

राजेश जोशी

और अधिकराजेश जोशी

     

    एक

    बहुत आँकी-बाँकी और चक्करदार थीं हमारे शहर की गलियाँ
    कुछ गलियों के रास्ते तो आसमान से होकर निकलते थे
    भटकते हुए उन गलियों में हमें कई बार तारे मिल जाते थे 
    अपनी लालटेनें लिए सिवान से लौटते किसानों की तरह
    बिना बात ही वो हमसे बतियाने लगते और कुछ दूर तक
    हमें रास्ता दिखाने चले आते
    कभी-कभी चाँद भी दिख जाता भटकता हुआ
    या बैठा हुआ आसमान की सफ़ील पर
    चलन से बाहर हो चुके किसी पुरानी रियासत के सिक्के की तरह
    उसका चेहरा कभी ज़र्द होता तो कभी चमकता रहता
    ख़ूब घिसकर माँजी गई काँसे की थाली की तरह
    वो भी शायद हमारी ही तरह बेरोज़गार था या आवारा
    रात में भटकना उसकी आदत में शुमार था
    ये वो दिन थे जब हमारे सपनों और हक़ीक़त के बीच
    हमेशा झगड़ा मचा रहता था
    हम झुकी हुई छतों वाले घरों से आए थे
    जिनके दरवाज़े इतने छोटे होते थे कि गरदन उठाते ही
    बारसक से सिर फूटता था
    सपने देखने की हमें बुरी आदत थी 
    हम सिनेमा देखकर रोते थे और हक़ीक़त से आँख मिलाने से कतराते थे
    भटकते हुए हमारे पाँव जब जवाब दे जाते
    तो किसी बंद दुकान के पटिए पर या पुलिया पर बैठ जाते 
    कोई अपनी जेब टोल कर बीड़ी का बंडल निकालता 
    और सबके लिए बीड़ियाँ सुलगाता
    तीली की रोशनी में आस-पास का सारा मायालोक
    एक पल को दरक जाता
    आसमान उचक कर बहुत ऊपर चला जाता
    और पाँवों के नीचे गलियों के ऊबड़-खाबड़ पत्थर उभरने लगते
    पीढ़ियों से इसी शहर में रह रहे यहाँ के बर्रू-काट बाशिंदों को भी
    ख़बर नहीं थी कि कितनी आँकी-बाँकी और चक्करदार हैं
    इस शहर की गलियाँ
    कि कई गलियों के रास्ते तो आसमान से होकर निकलते हैं। 

    दो

    अगर हम पैदल हों और कहीं पहुँचने की बहुत जल्दी हो
    तो गलियाँ कई लंबे रास्तों को बहुत छोटा बना देती थीं
    यूँ उन गलियों का ऐसा जाल था सारे शहर में फैला हुआ
    कि बिना सड़कों पर आए भी सारा शहर नापा जा सकता था
    उन गलियों में भटकते हुए
    उन गलियों से कई गलियाँ तो हमारे सपनों तक जाती थीं
    गप्प मारने के लिए अपार फ़ुरसत से भरी जगहें थीं उन गलियों में
    दुकानों और घरों से बाहर निकले पटिए थे 
    जो रात गए जब सूने हो जाते थे
    तो उन पर शतरंजें बिछ जाती थीं
    रोशनी और अँधेरे के उन चौख़ानों पर आधी-आधी रात तक
    खिसकते रहते थे स्याह और सफ़ेद मोहरे 
    इन्हीं पटियों से निकला था वो हमारे प्रदेश का चैम्पियन रफ़ीक़
    कहते हैं वो बाबू ख़ाँ का चेला था
    जिन्हें शुतुरघुन्ना मात देने में महारत हासिल थी
    गलियों में चाय की कई छोटी-छोटी दुकानें थीं
    दुकानों में अंदर धँसे हुए कमरे थे 
    जिनमें एक या कभी-कभी दो कैरम रखे होते थे
    पीली मद्धिम रौशनी और सिगरेट के धुएँ से भरे इन कमरों में
    कैरम के खिलाड़ी रात-रात भर जमे रहते 
    बाहर आसमान के कैरम पर क़्वीन के बाद
    कवर के लिए बची आख़री सफ़ेद गोट की तरह
    रखा होता था चाँद
    सड़कों के नाम अक्सर बेग़मों और नवाबों के नाम पर थे
    जबकि गलियों के नाम जिन लोगों के नाम पर थे
    उनका कोई लिखित इतिहास नहीं था
    काली धोबन की गली, शेख़ बत्ती की गली
    नाइयों की गली, बाजे वालों की गली
    गुलिया दाई की गली...
    इस गली के एक किनारे पर जुम्मा पहलवान रहता था
    जो हर साल दशहरे का रावण बनाता था
    दूसरे किनारे पर ख़ुशीलाल वैद्य का मकान था
    जिनका एक लड़का पिछले दिनों इस देश का राष्ट्रपति बन गया था
    चाँद जब जामा मस्ज़िद की ग़ुम्बदों से ऊपर चढ़ने लगता
    इन गलियों के रहस्य गहराने लगते
    तंगहाली के दिनों में भी गलियों ने कभी
    हमें शर्मिंदा नहीं किया
    दंगों के बीच अपने घरों तक पहुँचने के रास्ते दिए उन्होंने हमें
    उन्हीं की बनिस्बत शहर कभी बेगाना नहीं लगा हमें!

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 105)
    • रचनाकार : राजेश जोशी
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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