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क्षमा के विरुद्ध नहीं होता अपराध

kshama ke wiruddh nahin hota apradh

ज्याेति शोभा

ज्याेति शोभा

क्षमा के विरुद्ध नहीं होता अपराध

ज्याेति शोभा

अपराध के बाद दी गई क्षमा में कितना रस आया

यह वही बताता है

जिसके केशों पर पखवाड़े की धूल है

जिसकी देह पर गिरी रहती है पूस की शीत

जो फुलिया में रहता है कृत्तिबास ओझा की तरह और

निराकार हो कर बुनता है सूत की धोती

जैसे संत कवि ओझा बुना करते थे बांग्ला के निरुद्वेग छंद

पंद्रहवीं सदी में जब सुलभ थे राम मनुजों में

कुसुम कोमल राम की कल्पना में दिन निकाल दिए कृत्तिबास ओझा ने

कहते हैं इनके राम

फूल का धनुष लिए गए बन में

विलाप भी इतना सुमधुर किया कि मेघ झुक आए मुख पर

“हाय! उद्धार प्रिया का हो सका”।

देव किस देव को मनाते भला

तब जाम्बवंत ही सुझाते :

''शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन! छोड़ दो समर जब तक सिद्धि हो, रघुनंदन!!''

बाण लग गया हृदय में

तब शक्ति की आराधना में डूब गए ओझा के राम

तब ढाक बजे स्वप्न में

तब शंखनाद हुआ चतुर्दिक

और बंगाल में अवतरित हुई दुर्गा की छवि

छवि भी ऐसी कि सोलह कलाओं जैसी नित बढ़ती थी

क्वार के जलमय नौ दिन में प्रत्यक्ष रहकर

वर्ष भर नासापुटों में भरी रहती थी

योजन तक गमकती

प्रेमी जैसे रहता है काल्पनिक प्रणय में

स्वप्न में कृत्तिबास समाधिलीन रहते

गौड़ेश्वर के दरबार में क्षण भर को जाते

सत्कार होता, पुरस्कार पाते किंतु मन

फुलिया में टिका रहता

मानों प्रिया से बिछड़े प्राण पाते थे

जिस रोज़ शाक्त संप्रदाय के यहाँ भोजन करते उसी रोज़ सोते वैष्णवों के घर

वाल्मीकि के राम जानकी के सिरहाने रहने लगे

गौरी का क्लेश मिट गया शिव से

वैष्णवों का शाक्तों से

क्षमा के विरुद्ध नहीं होता अपराध

यह कौन कहता जो कृत्तिबास कहते

जो मुझे कहता मेरा प्रेम

चाहे बांग्ला आती हो मुझे

किंतु यह निश्चित है

धूम्र की गठरी जो ओझा गए खोलकर

उसी से जलती हैं पुतलियाँ।

स्रोत :
  • रचनाकार : ज्योति शोभा
  • प्रकाशन : समालोचन

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