मैं नाच रहा हूँ।
हाँ ठीक, इस जेल की दीवार पर खड़ा
मैं झूम रहा हूँ,
क्योंकि तूफ़ानी लहरों में ही
करवटें लेती हैं, उम्मीदें।
और हम
जो ज्ञान की ललक लिए
विचरते फिर रहे हैं
इस प्राचीन आकाश में,
हम, जिन्होंने खोजे हैं नए-नए ग्रह
चमकते सितारे,
हम ही आशाएँ हैं भविष्य की
दुनिया को हम से हैं कुछ उम्मीदें।
और इसीलिए
मैं उठ खड़ा होता हूँ, बार-बार
और दौड़ पड़ता हूँ,
हरी-भरी दूब के आलिंगन में बँधी
आज़ादी की धवल राह पर।
अपने इस ख़ाली समय में
गढ़ रहा हूँ, मैं, एक स्मारक।
सज़ा की इन अँधेरी रातों में
तराश रहा हूँ एक मूर्ति।
भोर की पैनी छेनी
चमक उठी है, मेरे इन हाथों में।
मुझे दीखने लगा है, सब कुछ
कितना स्पष्ट।
हर चीज़ जैसे हो गई हो, आवरणहीन—
ऊँचे-ऊँचे पेड़, असीम वायु,
कभी न थमने वाला दुनिया का तनाव,
और, इन सब के बीच
दूर-दूर तक फैला
आशा का विस्तार।
उम्मीदें ही उम्मीदें—
जिन से ऊर्जा लेकर
उड़ने लगता है, मेरे मन का पंछी
आकाश में
ऊँचा ही ऊँचा।
हाँ, मै नाच रहा हूँ
जेल की दीवार पर।
सचमुच, नहीं होता आसान
आज़ाद और साहसी होना।
आसान नहीं होता
विवेक की मर्यादाओं में बँध कर
आदर्शो के लिए प्रतिबद्ध होना।
कहाँ होता है आसान
निरंतर काँटों की चुभन को
झेलते जाना।
और, शायद इसी जिजीविषा की वजह से
बाढ़ से उफनती नदी का जल भी
नहीं उखाड़ पाता मेरे पाँव,
वे खड़े हैं जम कर
मज़बूत स्तंभों की तरह
और सारा का सारा पानी
बहते-बहते हो जाता है गुम
मुहानों की रेत में, कहीं।
सचमुच जीवन तो हिलोरें भरता है
तुम्हारे अपने हृदय में।
इसे उड़ने दो आकाश की ऊँचाइयों तक
लेने दो ऊँची से ऊँची परवाज़
यही है जीवन का सत्य।
- पुस्तक : सूखी नदी पर ख़ाली नाव (पृष्ठ 240)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : मार्टिन कार्टर
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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