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नदी-तट, साँझ और मेरा प्रश्न

nadi tat, sanjh aur mera parashn

प्रयागनारायण त्रिपाठी

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नदी-तट, साँझ और मेरा प्रश्न

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    “आह देखो, नदी का तट बहुत सुंदर है

    बहुत सुंदर...''

    (किंतु यह तो नहीं है उत्तर

    उस प्रश्न का

    जो मैंने किया था

    जो कुरेदे जा रहा है प्रतिक्षण।

    मन की अतल गहराइयों को।)

    “आह, देखो झुक रही है साँझ :

    आओ, इस शिला पर दो घड़ी बैठे—

    निहारें टूटती, जुड़ती लहरियों को,

    जो धार के सान्निध्य में भी बहुत प्यासी हैं, बहुत असहाय हैं—

    उन झुरमुटों को जो अँधेरे से लिपट कर सो गए हैं

    उस क्षितिज को

    जो सँभाले गोद में संध्या-नखत दो-चार

    चुप, झँवरा रहा है...''

    (किंतु यह भी नहीं—

    यह भी नहीं है उत्तर।

    उस प्रश्न का

    जो हृदय को शिला-सा चाँपे हुए है।)

    “...देखो, चुक गई यह साँझ कितनी शीघ्र,

    गहराया अँधेरा—

    रात घिरने लगी : निश्चित, भयावह, निस्तब्ध।

    आओ, अब उठे, वापस चलें :

    एकांत है, वन है, नदी का तीर है—

    दुर्दांत कोई पशु हमको सूँघ ले।

    —मैंने सुना है, सच, कि हिंसक जानवर में

    प्यास होती है बहुत ही तीव्र ताज़े आदमी के ख़ून की

    या कि घर के रास्ते ही।

    घुप अँधेरे में कहीं हम खो दें

    इसलिए, आओ, उठे वापस चलें हम...''

    (आह, मेरा प्रश्न

    जिसका विलमता ही रहा उत्तर

    किंतु जो है ग्रस चुका अस्तित्व को संपूर्ण

    जैसे नदी, झुरमुट, क्षितिज, अंबर को

    अँधेरा!)

    स्रोत :
    • पुस्तक : तीसरा सप्तक (पृष्ठ 28)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : प्रयागनारायण त्रिपाठी
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2013

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