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एहसानमंद कहता हुआ शुक्रिया

ehsanmand kahta hua shukriya

पंकज सिंह

पंकज सिंह

एहसानमंद कहता हुआ शुक्रिया

पंकज सिंह

ढूँढ़ता है रिश्तों के लिए बची-खुची जगह

अपनी ही मार खाई पीठ के टीले पर

नए समय के अजनबी रंगों, रोशनियों और शब्दों की बाढ़ में

यह आदमी तुम्हारा

बची-खुची नेकियों की ख़ैर मनाता

बेशुमार मुश्किलों में मुस्कुराता ज़ख़्मों के बावजूद

कभी-कभी अनमना भी रह-रहकर उदास

जैसे एक लाचार पत्थर अपनी लालसा की काई में

मगर सदैव करुणा से भरा

तुम्हारे फ़ैसलों के इंतज़ार में

जैसे विनम्र मिट्टी

जैसे कोई जंगली फूल

उपलब्ध ठंडी और गर्म हवाओं को

उपलब्ध धूप और अंधकार को

जैसे सोते का पानी

जड़ों और आकाश में बँटने को प्रस्तुत

हमेशा तुम्हारे साथ सफ़र के लिए तैयार

सचमुच एहसानमंद यह आदमी तुम्हारा

एक-सा एहसानमंद दोस्तों और दुश्मनों का

एक-सा एहसानमंद सेहत और बीमारियों का

एहसानमंद जितना अन्न के लिए

उतना ही भूख के लिए

कि भूख ने भी समझाईं ढेर सारी बातें

ढेर सारी कड़वी हक़ीक़तें ज़माने की

ऐसे में जो हासिल हुआ अनजान दुआओं की बरकत

जो छूट गया जाने दिया लगभग बेहिस होकर

कभी कोसा नहीं शाप नहीं दिए

धक्के खाए क़साईपन झेला

पतन और क्रूरताओं तले रौंदा जाकर भी

बचाए रहा आदमियत की आख़िरी उम्मीदों को

एहसानमंद उन गाड़ियों का जिनमें

लौटते थे छूटे हुए ठिकानों पर भले लोग यादें लेकर

हारते हुए कई-कई बार, फटे कपड़ों में, दाग़ लिए

बार-बार गिरीं मुझ पर उनकी छायाएँ, उनकी थकान

मैंने ख़ुद को देखा एक और शरीर की तरह कुछ फ़ासले से

सीने में हाहाकार लिए विनाशकारी प्रेम की भूलभुलैया में

निबाह करता धूल में मिलता हुआ

अपनी निश्छलता को सौगात-सा सजाए

धूसर असबाब और क़ीमती पुरानापन सँभाले

एहसानमंद उस लालटेन का

जिसकी रोशनी में

अब तक

चमकती

है

अनुभव की वर्णमाला

एहसानमंद उन छोटी-मोटी ख़ुशियों का

र्द दिनों और काली रातों के बावजूद

जिनसे होकर

बढ़ती थीं इच्छाएँ सपनों की ओर

यह आदमी तुम्हारा एहसानमंद कहता हुआ शुक्रिया

बार-बार शुक्रिया कि इस फ़िक्रमंद बदहाल को

तुमने सिखाया

बचना और लड़ना

उपहास करना सत्ताओं का

जब चीज़ों का धुँधला होना आम था, वजहें कई थीं

और चेहरे साफ़ नहीं दिखते थे

शुक्रिया आत्मा कि तुमने सब याद रखा है ठीक-ठीक

स्रोत :
  • रचनाकार : पंकज सिंह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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