व्यतीत क्षणक मोह
दृष्टिक पथार पर
सौजन्यक समग्र राशि छीटल अछि।
फूटऽसँ पहिनहि बन्हा गेल।
औचित्यक पोर पोर छेकल अछि, घेरल अछि;
अभ्यासक मुद्रामे बैसल संयोग बाज
शैशवक आङनमे लिप्त अछि समष्टि लोक
आजनसँ क्रीड़ारत चिन्ता जे काढ़ल अछि;
शंशय से बाढ़ल अछि।
परम्पराक सामन्ती अध्येता थाकि गेल।
पिजुआयल दृष्टिकोण अछि अग्राह्यः
अरघत कोना?
हमर संस्मरणक भट्ठी एखनहुँ अछि जरि रहल—धू-धू,
विस्मृतिक टेमीकेँ लेसबामे प्रयत्नशील छीहे हम,
किन्तु
हमर संवदनमे अछि अजस्र फुफकार
आभ्यन्तरक तार सभ झनझना जाइत अछि।
आइ
एखन जनमल जे चुट्टी—अछि काँपि रहल
आओर अपन सेहन्ता केर बज्जर भेल गेंठीकेँ खोलि रहल
—उपहास आ चुभन धरि
आतुर सन,
सम्भव ई छैक ने?
आह्लादेँ हम विभोर
एतबा जे भेल किछु हमरा संतोष अछि पूर्णतः अपना पर।
काज किछु भऽ रहल अछि समस्त दिगमण्डलमे,
भविष्यक ई सार्थबाह
हो समस्त गतिक भास
पद्धति पर पद्धति जँ ऐहिना खुजिते रहल
लोकक समग्र रासि चेतन जँ बूकि देल
अनभ्यासल आहूतिक चोट सभ विफल हो
होऔ कला प्राणवान
अभ्यर्थित लोक सर्जनाक रूप मूल्यवान
तखनहि आधार सत्य
गहन तत्त्व अमर यज्ञ
रूप गढ़त स्वर्णकाय मूर्त्तमान।
- पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 98)
- संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
- रचनाकार : रमानन्द रेणु
- प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, बिहार
- संस्करण : 1971
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