इतने समय से तुम क्या खोजते हो इस शहर में
जहाँ एक धुँधली युवावस्था में
तुम पत्थर की तरह लुढ़कते हुए आए थे
तुम्हें मिली एक ख़ाली जगह एक रात और रात के लिए बिस्तर
यहीं तुम्हें दिखी अपनी स्पष्ट ग़रीबी यहीं मिला अपना अहंकार
यह कौन-सी सभ्यता थी कौन-सा समय
वे किसकी रोशनियाँ थीं जो तुम्हारे आगे-पीछे चमकती रहती थीं
तुम शहर के भीतर प्रवेश करना चाहते थे उसके रक्त में
उसकी रातों में जिसकी सड़कें कई-कई हाथों से तुम्हें छूती थीं
और अब सुबह उठकर तुम देखते हो
जैसे यह कोई दूसरी जगह दूसरा शहर हो
तुम्हारी सड़कें धुँधली-सी हवा में झूलती हुईं दिखती हैं
तुम्हारे चौराहे अदृश्य हो चुके
वे घर ज़मींदोज़ हो गए जहाँ तुम चले आते थे
वे लोग भी उन पतों पर नहीं रहते जो तुम्हारी डायरी में दर्ज हैं
अब जहाँ तुम एक शाश्वत आपाधापी में चलते हो
चमकती हुई चीज़ों के बीच से
हाँफते सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते कभी-कभी हँसते दिखते हो
किताबें और दवाएँ ख़रीदते हुए
पैसे खोजने के लिए बार-बार अपनी जेबें टटोलते
जैसे देर हो गई हो और समय निकला जा रहा हो
वह कोई और ही शहर है जहाँ तुम होना नहीं चाहते
फिर भी तुम्हें होना होता है तकलीफ़देह सड़कों चौराहों के बीच
तमाम चीज़ों के पिछवाड़े
आज और अभी इस तरह जैसे यह कोई पुरानी बात हो
और जब तुम एक दिन झोला-बिस्तर उठाकर यहाँ से छूटने के लिए
निकलते हो तो पाते हो तुम्हारे और शहर के बीच कोई नहीं है
लोग जा चुके हैं सड़कें चौराहे सब कुछ एक स्थिर बिंब में ठहरा हुआ है
हवा का एक झोंका आता है आसमान का एक हिस्सा
तुम्हारे चेहरे का स्पर्श करता है दूर एक तारा चमकता है
और इतने पास आ जाता है जैसे वह इस शहर का प्रकाश हो
और तुम्हारा कोई पुराना स्वप्न इस तरह जीवित हो उठता है
कि तुम उसे छू सकते हो
तब तुम सड़क के किनारे एक पत्थर पर बैठ जाते हो
और सोचते हो उस शहर में अब भी पहुँचा जा सकता है
जिसकी खोज में तुम यहाँ आए थे
एक पत्थर की तरह कहीं से लुढ़कते हुए।
- रचनाकार : मंगलेश डबराल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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