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तरंगिका

tarangika

अनुवाद : दिनेश चमोला

आचार्य ज़ौजी

आचार्य ज़ौजी

तरंगिका

आचार्य ज़ौजी

और अधिकआचार्य ज़ौजी

    अरी तरंगिका मित्र!

    क्या तुम आई हो

    दूर फैले समुद्र से

    समुद्र तट की इस बेदी तक?

    तुम आती हो

    क्षणिक ध्वनि करती

    अपना पुराना रूप छोड़ती

    नई दृष्टि का स्वाँग भरती

    और लगती हो

    स्वाँग भरती

    और जान पड़ता है जैसे चली जाती हो छोड़कर तुम

    विस्तृत समुद्र के उस ओर

    तुम कहाँ से आई हो

    जाओगी किस बंदरगाह तक?

    अनुमान नहीं लगा सकता मैं

    लेकिन

    तुम्हारे समुद्री मार्ग में

    तुम सहोगी

    अपनी पीठ पर भार

    एक बेड़े की तरह

    हवाओं का ज्वार

    तरंगायित होगा

    मुझे इस विचार से

    होती है प्रसन्नता

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन बर्मी कविताएँ (पृष्ठ 55)
    • संपादक : चन्द्र प्रकाश प्रभाकर 'मौतीरि'
    • रचनाकार : आचार्य ज़ौजी
    • प्रकाशन : इरावदी प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1994

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